ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 24
ऋषिः - वशोऽश्व्यः
देवता - पृथुश्रवसः कानीतस्य दानस्तुतिः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
दाना॑सः पृथु॒श्रव॑सः कानी॒तस्य॑ सु॒राध॑सः । रथं॑ हिर॒ण्ययं॒ दद॒न्मंहि॑ष्ठः सू॒रिर॑भू॒द्वर्षि॑ष्ठमकृत॒ श्रव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठदाना॑सः । पृ॒थु॒ऽश्रव॑सः । का॒नी॒तस्य॑ । सु॒ऽराध॑सः । रथ॑म् । हि॒र॒ण्यय॑म् । दद॑त् । मंहि॑ष्ठः । सू॒रिः । अ॒भू॒त् । वर्षि॑ष्ठम् । अ॒कृ॒त॒ । श्रवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दानासः पृथुश्रवसः कानीतस्य सुराधसः । रथं हिरण्ययं ददन्मंहिष्ठः सूरिरभूद्वर्षिष्ठमकृत श्रव: ॥
स्वर रहित पद पाठदानासः । पृथुऽश्रवसः । कानीतस्य । सुऽराधसः । रथम् । हिरण्ययम् । ददत् । मंहिष्ठः । सूरिः । अभूत् । वर्षिष्ठम् । अकृत । श्रवः ॥ ८.४६.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The gifts of generosity of the supreme giver universally renowned, sublime and bountiful, giving a golden chariot to the devotee, earn him the tributes of being most glorious and spread his fame as the most munificent hero.
मराठी (1)
भावार्थ
लोक ईश्वराची याचना करतात, परंतु त्याचे दान जाणत नाहीत. त्याची कृपा व दान अनंत आहे. तो शरीररूपी सुवर्णमय रथ देतो. याद्वारे जीव सर्व काही प्राप्त करू शकतो. त्यासाठी त्याला धन्यवाद द्यावेत. ॥२४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
पृथुश्रवसः=महामहाकीर्ते । कानीतस्य=कमनीयस्य । सुराधसः=परमधन=सम्पन्नस्य ईश्वरस्य । दानासः= दानानि=बहूनि सन्तीति मनुष्यैर्बोध्यम् । स चेश्वरः । मह्यम् । हिरण्ययं=सुवर्णमयम् । रथम् । ददत् । मंहिष्ठः=पूज्यो भवति । हे मनुष्याः स सूरिः=धनानां प्रेरकोऽस्ति । पुनः । स वर्षिष्ठमतिशयेन प्रवृद्धम् । श्रवो यशः । लोकेषु । अकृत=करोति ॥२४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (पृथुश्रवसः) महामहा कीर्ति (कानीतस्य) कमनीय (सुराधसः) परम धनाढ्य उस ईश्वर के (दानासः) दान अनेक और अनन्त हैं । मुझको (हिरण्ययं+रथम्) सुवर्णमय रथ (ददत्) देता हुआ (मंहिष्ठः) परमपूज्य होता है । हे मनुष्यों ! वह (सूरिः) सब प्रकार के धन का प्रेरक है (वर्षिष्ठम्+श्रवः+अकृत) उपासकों के महान् यश को वह फैलाता है ॥२४ ॥
भावार्थ
ईश्वर से लोग याचना करते हैं, परन्तु उसके दान लोग नहीं जानते हैं, उसकी कृपा और दान अनन्त है, वह सुवर्णमय रथ देता है, जो शरीर है, इससे जीव सब कुछ प्राप्त कर सकता है, उसको धन्यवाद दो ॥२४ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( पृथु-श्रवसः ) अधिक ज्ञान वा यश वाले, ( सु-राधसः ) उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न, उस स्वामी के ( दानासः ) उत्तम दान हैं। वह ( मंहिष्ठः ) अति पूज्य दानी, ( हिरण्ययं रथं ददत् ) हित, रमणीय, कान्तिमय रथ प्रदान करता है, और वह ( सूरिः ) विद्वान् सर्वोत्पादक ( अभूत् ) हो, ( वर्षिष्ठम् ) प्रभूत, प्रचुर ( श्रवः ) ज्ञान, अन्नादि (अकृत) उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
हिरण्यय रथ
पदार्थ
[१] उस (पृथुश्रवसः) = विस्तृत कीर्तिवाले, कानीतस्य दीप्त, (सुराधसः) = शोभन ऐश्वर्योंवाले प्रभु के (दानासः) = ये सब दृश्यमान दान है। गतमन्त्र में वर्णित दस इन्द्रियाश्व भी उस प्रभु की ही देन हैं। [२] (हिरण्ययं रथं ददत्) = इस ज्योतिर्मय शरीररथ को देता हुआ वह प्रभु (मंहिष्ठः) = हमारे लिए दातृतम है-सर्वोत्तम दाता है। इन वस्तुओं को देने के साथ वे प्रभु (सूरिः अभूत्) = प्रेरणा देनेवाले हैं। इन वस्तुओं का प्रयोग व प्रतियोग न करके यथायोग करने के लिए प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं। इस प्रेरणा के द्वारा ही प्रभु हमारे लिए (चर्षिहष्)ठ = अत्यन्त उत्कृष्ठ व बहुत (अवः) = ज्ञान को अकृत करते हैं। इस ज्ञान से ही तो हमारा जीवन पवित्र बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के दान अनन्त हैं। प्रभु ने यह ज्योतिर्मय शरीररथ हमें दिया है। इसको चलाने के लिए वे प्रेरणा दे रहे हैं। इस प्रेरणा से ही हमारा ज्ञान बढ़ता है।
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