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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 26
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - वायु: छन्दः - स्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यो अश्वे॑भि॒र्वह॑ते॒ वस्त॑ उ॒स्रास्त्रिः स॒प्त स॑प्तती॒नाम् । ए॒भिः सोमे॑भिः सोम॒सुद्भि॑: सोमपा दा॒नाय॑ शुक्रपूतपाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अश्वे॑भिः । वह॑ते । वस्ते॑ । उ॒स्राः । त्रिः । स॒प्त । स॒प्त॒ती॒नाम् । ए॒भिः । सोमे॑भिः । सो॒म॒सुत्ऽभिः॑ । सो॒म॒ऽपाः॒ । दा॒नाय॑ । शु॒क्र॒पू॒त॒ऽपाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अश्वेभिर्वहते वस्त उस्रास्त्रिः सप्त सप्ततीनाम् । एभिः सोमेभिः सोमसुद्भि: सोमपा दानाय शुक्रपूतपाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । अश्वेभिः । वहते । वस्ते । उस्राः । त्रिः । सप्त । सप्ततीनाम् । एभिः । सोमेभिः । सोमसुत्ऽभिः । सोमऽपाः । दानाय । शुक्रपूतऽपाः ॥ ८.४६.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 26
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come he who travels by radiations of cosmic energy, vested in and carrying thrice seven of seventy rays of the sun, he, protector of the pure and holy, protector of soma joy, come with these somas of bliss, with the makers of soma for giving us the gifts of joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आमच्या सर्व इन्द्रियशक्तींचा मूलस्रोत स्वत: विश्वाचा रचनाकार परमेश्वर आहे. ॥२६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    य ईशः । अश्वेभिः=अश्वैः संसारैः सह । वहते=सर्वाणि कार्य्याणि सम्पादयति । यश्च उस्रा=इन्द्रियाणि । वस्ते । व्याप्य तिष्ठति । तासां गवां सख्या=त्रिःसप्त सप्तीनाम् । पुनः । एभिः=सोमेभिः सोमप्रभृतिभिरोषधीभिः । पुनः । सोमसुद्भिः=सोमसम्पादकजीवैश्च सह स वहते । हे सोमपाः=हे सोमरक्षक ! हे शुक्रपूतपाः=शुक्राणां शुचीनाम् । पूतानां पवित्राणां रक्षक ! त्वम् । दानाय । इमम् । रचनां करोषि ॥२६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (यः) जो सर्वज्ञ ईश (अश्वेभिः) संसार के साथ ही (वहते) वहता है अर्थात् इस जगत् के साथ ही सब कार्य्य कर रहा है, जो (उस्राः) प्राणियों की इन्द्रियों में व्याप्त होकर विद्यमान है, जो इन्द्रिय (त्रिः सप्त) त्रिगुण सात हैं (सप्तीनाम्) ७० (सत्तर) के जो (एभिः) इन सोम प्रभृति ओषधियों के साथ और (सोमसुद्भिः) उन ओषधियों को काम में लानेवाले प्राणियों के साथ विद्यमान है । (सोमपाः) हे सोमरक्षक (शुक्रपूतपाः) हे शुचि और पवित्र जीवों के रक्षक देव ! (दानाय) महादान के लिये आप इस रचना को रचते हैं ॥२६ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( अश्वेभिः वहते ) अश्वारोही गणों के साथ मिलकर राष्ट्र के शासनादि कार्य को अपने कन्धों लेता है, ( त्रिः सप्त सप्ततीनाम् ) ७० के २१ गुणा अर्थात् १४७० (उस्राः ) भूमियों, गौओं या किरणोंवत् प्रजाओं को ( वस्ते ) अपने अधीन करता है, हे ( सोमपाः ) ऐश्वर्य के पालक ! हे ( शुक्र-पूतपाः ) शुद्ध पवित्र रीति से प्राप्त ऐश्वर्य के पालक सूर्यवत् तेजस्विन् ! वायुवत् शुद्ध जल के ग्रहीतः ! तू (एभिः) इन ( सोमसुद्भिः ) सोम अर्थात् अभिषेक योग्य विद्वान् पुरुषों का अभिषेक करने वाले और ( सोमेभिः ) उत्तम विद्वान् शासकों सहित स्वयं भी ( दानाय ) दान देने के लिये प्रवृत्त रहता है, वह बड़ा आनन्द लाभ करता।

    टिप्पणी

    अत्र द्वात्रिंशत्तममन्त्रगत मदन्ति क्रियापदेन सर्वत्र सम्बन्धः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अश्वेभिः वहते, उस्त्राः वस्ते

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (अश्वेभिः) = इन्द्रियाश्वों के द्वारा (वहते) = शरीररथ को लक्ष्य की ओर ले जाता है, वह (सप्ततीनां) = [सप्= To worship] प्रभुपूजन करनेवाली वेदवाणियों के (त्रिः सप्त) = तीन प्रकार से- आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक अर्थ भेद से सात छन्दों में प्रतिपादित (उस्त्रा:) = ज्ञानरश्मियों को (वस्ते) = धारण करता है। [२] यह ज्ञानरश्मियों को धारण करनेवाला व्यक्ति (एभिः) = इन (सोमेभिः) = सोमकणों के द्वारा और (सोमसुद्भिः) = सोम का अभिषव करनेवाले पुरुषों के सम्पर्क में (सोमपाः) = सोम का पान [रक्षण] करनेवाला होता हुआ (दानाय) = सदा दान के लिए होता है - देने की वृत्तिवाला बनता है। (शुक्रपूतपा:) = शुक्र से वीर्य से (पूत) = पवित्र हुई हुई इन्द्रियों का रक्षण करनेवाला बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें चाहिए कि [१] इन्द्रियाश्वों के द्वारा शरीररथ को लक्ष्य की ओर ले चलें । [२] वेदवाणियों की ज्ञान किरणों को धारण करें। [३] सोम का रक्षण करें। [४] सोम से सबल बनी हुई इन्द्रियों का रक्षण करें, [५] दान की वृत्तिवाले हों।

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