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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ यस्य॑ ते महि॒मानं॒ शत॑मूते॒ शत॑क्रतो । गी॒र्भिर्गृ॒णन्ति॑ का॒रव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यस्य॑ । ते॒ । म॒हि॒मान॑म् । शत॑म्ऽऊते । शत॑क्रतो॒ इति॒ शत॑ऽक्रतो । गीः॒ऽभिः । गृ॒णन्ति॑ । का॒रवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यस्य ते महिमानं शतमूते शतक्रतो । गीर्भिर्गृणन्ति कारव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यस्य । ते । महिमानम् । शतम्ऽऊते । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । गीःऽभिः । गृणन्ति । कारवः ॥ ८.४६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of a hundred forms of protection, high priest of a hundred forms of cosmic yajna, we know you whose majesty poets and artists celebrate with songs of adoration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगले विद्वान स्तुतिपाठक व इतर आचार्य त्याचीच स्तुती करतात. त्यासाठी हे माणसांनो! तुम्हीही त्याचाच महिमा गा. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे शतमूते ! शतमनन्तम् ऊतयो रक्षा यस्य स शतमूतिः तस्य सम्बोधने । हे शतक्रतो भगवन् ! यस्य ते महिमानम् । कारवः=कर्त्तारः स्तोत्राणाम् । गीर्भिः=वचनैः । गृणन्ति=स्तुवन्ति ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (शतमूते) हे अनन्त प्रकार से रक्षाकारक (शतक्रतो) हे अनन्तकर्मसंयुक्त महाकर्मन् देव ! (यस्य+ते) जिस तेरे (महिमानम्) महिमा को (कारवः) स्तुतिकर्त्तृगण (गीर्भिः) अपने-२ गद्य पद्यमय वचनों से (गृणन्ति) गाते हैं ॥३ ॥

    भावार्थ

    अच्छे विद्वान् स्तुतिपाठक और अन्यान्य आचार्य्यगण उसी की स्तुति करते हैं, अतः हे मनुष्यों ! आप भी उसी की महिमा गाओ ॥३ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( यस्य ते ) जिस तेरे ( महिमानं ) महान् सामर्थ्य को ( कारवः ) विद्वान् जन ( गीर्भिः ) वाणियों से ( गृणन्ति ) बतलाते हैं, हे (शतम् ऊते) सैकड़ों रक्षाओं से सम्पन्न ! हे (शतक्रतो ) सैकड़ों प्रजाओं और कर्म समार्थ्यो से युक्त उस तुझको ही हम सच्चा अन्नदाता, अभीष्टप्रद और ऐश्वर्यदाता जानें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शतमूति-शतक्रतु [प्रभु]

    पदार्थ

    [१] हे (शतमूते) = सैंकड़ों रक्षणोंवाले व शतक्रतो सैंकड़ों प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो ! (यस्य ते) = जिन आपकी (महिमानं) = महिमा को (कारवः) = यज्ञादि कर्मों को करनेवाले लोग (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (आगृणन्ति) = सदा स्तुत करते हैं। [२] हे प्रभो ! आपका वस्तुतः यशोगान तो क्रियाशील लोग ही करते हैं। उन्हीं को आपका रक्षण प्राप्त होता है, उन्हीं के लिए आप प्रज्ञान व शक्ति को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- कारु-कुशलता से कर्म करनेवाला प्रभु का उपासक होता है। यही प्रभु से रक्षण प्रज्ञान व शक्ति को प्राप्त करता है।

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