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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यो दु॒ष्टरो॑ विश्ववार श्र॒वाय्यो॒ वाजे॒ष्वस्ति॑ तरु॒ता । स न॑: शविष्ठ॒ सव॒ना व॑सो गहि ग॒मेम॒ गोम॑ति व्र॒जे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । दु॒स्तरः॑ । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । श्र॒वाय्यः॑ । वाजे॑षु । अस्ति॑ । त॒रु॒ता । सः । नः॒ । श॒वि॒ष्ठ॒ । सव॑ना । आ । व॒सो॒ इति॑ । ग॒हि॒ । ग॒मेम॑ । गोऽम॑ति । व्र॒जे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो दुष्टरो विश्ववार श्रवाय्यो वाजेष्वस्ति तरुता । स न: शविष्ठ सवना वसो गहि गमेम गोमति व्रजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । दुस्तरः । विश्वऽवार । श्रवाय्यः । वाजेषु । अस्ति । तरुता । सः । नः । शविष्ठ । सवना । आ । वसो इति । गहि । गमेम । गोऽमति । व्रजे ॥ ८.४६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnificent of the world, omnipotent, haven and home of the universe, that divine joy, Ananda, which is difficult to attain, most renowned and profuse, ark of success over the seas and struggles of life, that Ananda, O lord, come and bring us, which may we attain in our yajnic sessions of meditation at the centre of our personality wherein the mind and senses converge and merge with spiritual consciousness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या स्तुतीने जो आनंद प्राप्त होतो तो संसार सागरातून पार पाडतो. त्यासाठी इतर सर्व सोडून एका परमेश्वराची स्तुती करणे योग्य आहे. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे विश्ववारः ! सर्ववरणीय इन्द्र ! यस्ते मदः । दुस्तरः । श्रवाय्यः=श्रोतुं योग्यः । वाजेषु=संग्रामेषु । तरुता= तारकोऽस्ति । हे शविष्ठ ! अतिशय बलवन् ! हे वसो वासक ! देव ! स त्वम् । नोऽस्माकम् । सवना=सवनानि । आगहि=आगच्छ । तव कृपया वयञ्च । गोमति=गोभिर्युक्ते । व्रजे । गमेम=गच्छेम । गोमन्तं व्रजं गच्छेमेत्यर्थः ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (विश्ववार) हे सर्वजनवरणीय सर्वश्रेष्ठ इन्द्र ! जिस तेरा (यः) जो आनन्द (दुस्तरः) दुस्तर (श्रवाय्यः) सुनने योग्य और (वाजेषु+तरुता+अस्ति) संग्रामों में पार उतारनेवाला है, (सः) वह तू (नः) हमारे (सवना) प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के तीनों यज्ञों में (आगहि) आ और हम लोग (गोमति+व्रजे) गोसंयुक्त स्थान में अथवा आनन्दमय प्रदेश में (गमेम) प्राप्त होवें ॥९ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे (विश्व-वार) सबसे वरण करने योग्य ! हे सब दुःखों को वारण करने वाले ! ( यः ) जो ( दुस्तरः ) कभी पराजित न होने वाला, ( वाजेषु ) संग्रामों वा ज्ञानों में ( श्रवाय्यः ) श्रवण करने योग्य, सुप्रसिद्ध, (तरुता अस्ति) सब शत्रुओं का हिंसक और समस्त प्रजा को पार उतारने वाला है, ( सः) वह तू हे ( शविष्ठ ) बलशालिन् ! हे ( वसो ) सब में बसे, सबको बसाने वाले ! ( नः गहि ) हमारे ( सवना ) ऐश्वर्यों को प्राप्त हो। और हम ( गोमति व्रजे ) उत्तम बैलों वाले रथ के समान इस इन्द्रियों से सम्पन्न देह में बैठकर ( सवना ) समस्त ऐश्वर्यों, जन्मों और नाना लोकों को ( गमेम ) प्राप्त करें, संसार मार्ग पर गमन करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'दुष्टर, श्रवाय्य व तरुता' मद

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के मद का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि (यः) = जो, हे (विश्ववार) = सब से वरणीय प्रभो ! अथवा सब वरणीय वस्तुओंवाले प्रभो ! [मदः =] आपकी प्राप्ति से उत्पन्न मद है वह (दुष्टरः) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं (श्रवाय्यः) = यह हमारे जीवन को यशस्वी बनानेवाला हैं, (वाजेषु) = संग्रामों में (तरुता अस्ति) = तरानेवाला है। [२] हे (शविष्ठ) = सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न ! (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे (सवना) = जीवनयज्ञों में (आगहि) = प्राप्त होइये । हम आपके अनुग्रह से (गोमति व्रजे) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले इस शरीररूप गृह में गोमत प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति का मद 'दुष्टर, श्रवाय्य व तरुता' है। हमें प्रभु प्राप्त हों और हम प्रशस्त इन्द्रियोंवाले शरीर को प्राप्त हों।

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