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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒भि प्र व॑: सु॒राध॑स॒मिन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे । यो ज॑रि॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ पुरू॒वसु॑: स॒हस्रे॑णेव॒ शिक्ष॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । वः॒ । सु॒ऽराध॑सम् । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे । यः । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । म॒घऽवा॑ । पु॒रु॒ऽवसुः॑ । स॒हस्रे॑णऽइव । शिक्ष॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र व: सुराधसमिन्द्रमर्च यथा विदे । यो जरितृभ्यो मघवा पुरूवसु: सहस्रेणेव शिक्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । वः । सुऽराधसम् । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे । यः । जरितृऽभ्यः । मघऽवा । पुरुऽवसुः । सहस्रेणऽइव । शिक्षति ॥ ८.४९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (वः) = तुम्हारे (सुराधसम्) = उत्तम ऐश्वर्य व साफल्य को देनेवाले (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (यथाविदे) = यथार्थ ज्ञान के लिए (अभि प्र अर्च) = प्रातः सायं प्रकर्षेण अर्चित कर। [२] उस इन्द्र का अर्चनकर (यः) = जो (मघवा) = परमैश्वर्यशाली (पुरुवसुः) = पालक व पूरक धनोंवाला प्रभु जरितृभ्यः = स्तोताओं के लिए सहस्त्रेण इव सहस्रों के समान शिक्षति-आवश्यक धनों को देता है। सहस्रों व्यक्ति भी मिलकर हमारे लिए वह धन नहीं प्राप्त कराते, जिसे कि प्रभु देते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम परमैश्वर्यशाली प्रभु का पूजन करें। यही ज्ञानप्राप्ति का मार्ग है। इसी से हमें आवश्यक धनों की प्राप्ति होगी। प्रभु ही सब सफलताओं को देते हैं।

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