ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 10
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तु॒र॒ण्यवो॒ मधु॑मन्तं घृत॒श्चुतं॒ विप्रा॑सो अ॒र्कमा॑नृचुः । अ॒स्मे र॒यिः प॑प्रथे॒ वृष्ण्यं॒ शवो॒ऽस्मे सु॑वा॒नास॒ इन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठतु॒र॒ण्यवः॑ । मधु॑ऽमन्तम् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । विप्रा॑सः । अ॒र्कम् । आ॒नृ॒चुः॒ । अ॒स्मे इति॑ । र॒यिः । प॒प्र॒थे॒ । वृष्ण्य॑म् । शवः॑ । अ॒स्मे इति॑ । सु॒वा॒नासः॑ । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः । अस्मे रयिः पप्रथे वृष्ण्यं शवोऽस्मे सुवानास इन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठतुरण्यवः । मधुऽमन्तम् । घृतऽश्चुतम् । विप्रासः । अर्कम् । आनृचुः । अस्मे इति । रयिः । पप्रथे । वृष्ण्यम् । शवः । अस्मे इति । सुवानासः । इन्दवः ॥ ८.५१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
विषय - 'मधुमान् घृतश्चुत् व अर्क' प्रभु
पदार्थ -
[१] (तुरण्यवः) = क्षिप्रकारी कर्मकुशल (विप्रासः) = अपना विशेष रूप से पूरण करनेवाले लोग (मधुमन्तं) = अत्यन्त माधुर्यवाले (घृतश्चुतं) = दीप्ति को हमारे जीवनों में आसिक्त करनेवाले (अर्कम्) = पूजनीय प्रभु का (आनृचुः) = अर्चन करते हैं। [२] इस प्रभु के अर्चन से (अस्मे) = हमारे लिए (रयिः पप्रथे) = ऐश्वर्य का विस्तार होता है। (वृष्ण्यं शवः) = हमें सुखों का सेचन करनेवाला बल प्राप्त होता है । (अस्मे) = हमारे लिए (सुवानासः) = उत्पन्न होते हुए सोमकण (इन्दवः) = शक्तिशाली बनानेवाले होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का अर्चन करें। हमें ऐश्वर्य व शक्ति प्राप्त होगी। हमारे अन्दर सुरक्षित सोमकण हमें तेजस्वी व ओजस्वी बनाएँगे। प्रभु की उपासना जीवन को मधुर व ज्ञानदीप्त बनाती है | इस मन्त्र में वृणत 'तुरण्यु' पुरुष ही ' आयु' [इ गतौ] है, समझदार होने से ये 'काण्व' हैं' । यह आयु काण्व' अगले सूक्त का ऋषि है। यह इन्द्र का उपासन करता हुआ कहता है कि-
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