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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
    ऋषिः - आयुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यथा॒ मनौ॒ विव॑स्वति॒ सोमं॑ श॒क्रापि॑बः सु॒तम् । यथा॑ त्रि॒ते छन्द॑ इन्द्र॒ जुजो॑षस्या॒यौ मा॑दयसे॒ सचा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । मनौ॑ । विव॑स्वति । सोम॑म् । श॒क्र॒ । अपि॑बः । सु॒तम् । यथा॑ । त्रि॒ते । छन्दः॑ । इ॒न्द्र॒ । जुजो॑षसि । आ॒यौ । मा॒द॒य॒से॒ । सचा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिबः सुतम् । यथा त्रिते छन्द इन्द्र जुजोषस्यायौ मादयसे सचा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । मनौ । विवस्वति । सोमम् । शक्र । अपिबः । सुतम् । यथा । त्रिते । छन्दः । इन्द्र । जुजोषसि । आयौ । मादयसे । सचा ॥ ८.५२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (यथा) = जिस प्रकार (मनौ) = विचारशील पुरुष में तथा (विवस्वति) = अज्ञानान्धकार को विवासित करनेवाले पुरुष में, हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! आप (सुतं सोमं) = उत्पन्न हुए हुए सोम का (अपिब:) = पान करते हैं। जब हम विचारशील बनते हैं और अज्ञानान्धकार को दूर करने के लिए स्वाध्यायशील होते हैं तो वासनाओं से बचे रहते हैं और इस प्रकार सोम का रक्षण करते हैं। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (यथा) = जिस प्रकार आप (त्रिते) = काम-क्रोध-लोभ को तैर जानेवाले में (छन्दः) = इन ज्ञान की वाणियों को (जुजोषसि) = प्रीतिपूर्वक सेवन कराते हैं इसी तरह (आयौ) = गतिशील पुरुष में (सचा) = समवेत होकर (मादयसे) = उसे आनन्दित करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम 'मनु विवस्वान्' विचारशील व स्वाध्यायशील बनकर सोम को शरीर में सुरक्षित रखें। 'त्रित' बनकर ज्ञान की वाणियों के प्रति प्रेमवाले हों। 'आयु' बनकर प्रभु से मेलवाले होते हुए आनन्दित हों।

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