ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 3
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
य उ॒क्थेभि॒र्न वि॒न्धते॑ चि॒किद्य ऋ॑षि॒चोद॑नः । इन्द्रं॒ तमच्छा॑ वद॒ नव्य॑स्या म॒त्यरि॑ष्यन्तं॒ न भोज॑से ॥
स्वर सहित पद पाठयः । उ॒क्थेभिः॑ । न । वि॒न्धते॑ । चि॒कित् । यः । ऋ॒षि॒ऽचोद॑नः । इन्द्र॑म् । तम् । अच्छ॑ । व॒द॒ । नव्य॑स्या । म॒ती । अरि॑ष्यन्तम् । न । भोज॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
य उक्थेभिर्न विन्धते चिकिद्य ऋषिचोदनः । इन्द्रं तमच्छा वद नव्यस्या मत्यरिष्यन्तं न भोजसे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । उक्थेभिः । न । विन्धते । चिकित् । यः । ऋषिऽचोदनः । इन्द्रम् । तम् । अच्छ । वद । नव्यस्या । मती । अरिष्यन्तम् । न । भोजसे ॥ ८.५१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
विषय - चिकिद्यः ऋषिचोदनः
पदार्थ -
[१] (यः) = जो (उक्थेभिः) = स्तोत्रों के द्वारा (न विन्धते) = पूर्णतया विद्ध नहीं होते, अर्थात् जो स्तोत्रों द्वारा पूरा-पूरा जाने नहीं जाते, (चिकिद्य:) = जानने योग्य वेद्य हैं, (ऋषिचोदनः) = तत्त्वदर्शियों को प्रेरित करनेवाले हैं, (तम्) = उस (इन्द्रम् अच्छ) = प्रभु को लक्ष्य करके (नव्यस्या मती) = अतिशयेन स्तुत्य मति के द्वारा (वद) = स्तुतिवचनों का उच्चारण कर । [२] (अरिष्यन्तं न) = किसी भी प्रकार हिंसित न होते हुए के समान उस प्रभु का तु स्तवन कर । स्तुति किये गये प्रभु (भोजसे) = तेरे पालन के लिए होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही वेद्य हैं, पर किन्हीं पर शब्दों से प्रभु के पूर्ण वर्णन का सम्भव नहीं । इन्हीं प्रभु का हमें स्तवन करना चाहिए। ये प्रभु हमारा पालन करते हैं।
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