ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पा॒र्ष॒द्वा॒णः प्रस्क॑ण्वं॒ सम॑सादय॒च्छया॑नं॒ जिव्रि॒मुद्धि॑तम् । स॒हस्रा॑ण्यसिषास॒द्गवा॒मृषि॒स्त्वोतो॒ दस्य॑वे॒ वृक॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒र्ष॒द्वा॒णः । प्रस्क॑ण्वम् । सम् । अ॒सा॒द॒य॒त् । शया॑नम् । जिव्रि॑म् । उद्धि॑तम् । स॒हस्रा॑णि । अ॒सि॒सा॒स॒त् । गवा॑म् । ऋषिः॑ । त्वाऽऊ॑तः । दस्य॑वे । वृकः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पार्षद्वाणः प्रस्कण्वं समसादयच्छयानं जिव्रिमुद्धितम् । सहस्राण्यसिषासद्गवामृषिस्त्वोतो दस्यवे वृक: ॥
स्वर रहित पद पाठपार्षद्वाणः । प्रस्कण्वम् । सम् । असादयत् । शयानम् । जिव्रिम् । उद्धितम् । सहस्राणि । असिसासत् । गवाम् । ऋषिः । त्वाऽऊतः । दस्यवे । वृकः ॥ ८.५१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
विषय - दस्यवे वृकः
पदार्थ -
[१] (पार्षद्वाणः) = ज्ञान की वाणियों को देनेवाला प्रभु (प्रस्कण्वं) = मेधावी को मेधावी के लिए (शयानं) = सर्वत्र निवास करनेवाले (जिव्रिम्) = सनातन पुराण (उद्धितम्) = उत्कृष्ट हित करनेवाले प्रभु को (समसादयत्) = प्राप्त कराते हैं। प्रभुकृपा से ही एक मेधावी पुरुष प्रभु का दर्शन करता है। [२] (गवां) = इन ज्ञान की वाणियों का (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा व्यक्ति (सहस्त्राणि) = सहस्रों धनों का (असिषासद्) = संभजन करनेवाला होता है। हे प्रभो ! (त्वा ऊतः) आपसे रक्षित किया गया यह व्यक्ति (दस्यवे) = विनाशक वृत्ति के लिए [दसु उपक्षये] (वृकः) = भेड़िये के समान होता है, अर्थात् इन दास्यव वृत्तियों को समाप्त करनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभुकृपा से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान से ही हम प्रभुदर्शन कर पाते हैं। प्रभु से रक्षित होकर हम दास्यव भावनाओं को समाप्त करनेवाले होते हैं।
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