ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पा॒र्ष॒द्वा॒णः प्रस्क॑ण्वं॒ सम॑सादय॒च्छया॑नं॒ जिव्रि॒मुद्धि॑तम् । स॒हस्रा॑ण्यसिषास॒द्गवा॒मृषि॒स्त्वोतो॒ दस्य॑वे॒ वृक॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒र्ष॒द्वा॒णः । प्रस्क॑ण्वम् । सम् । अ॒सा॒द॒य॒त् । शया॑नम् । जिव्रि॑म् । उद्धि॑तम् । स॒हस्रा॑णि । अ॒सि॒सा॒स॒त् । गवा॑म् । ऋषिः॑ । त्वाऽऊ॑तः । दस्य॑वे । वृकः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पार्षद्वाणः प्रस्कण्वं समसादयच्छयानं जिव्रिमुद्धितम् । सहस्राण्यसिषासद्गवामृषिस्त्वोतो दस्यवे वृक: ॥
स्वर रहित पद पाठपार्षद्वाणः । प्रस्कण्वम् । सम् । असादयत् । शयानम् । जिव्रिम् । उद्धितम् । सहस्राणि । असिसासत् । गवाम् । ऋषिः । त्वाऽऊतः । दस्यवे । वृकः ॥ ८.५१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
When debility of mind and speech took over the old, unsettled and depressed intellectual, then the sage, inspired and strengthened by you as a thunderbolt made him sit in a thousand rays of the sun for treatment and cure.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रकृष्ट प्रशंसक परंतु असावधानीने वाणीचा प्रयोग करून विद्वानही कधी कधी वाणीच्या हिंसक रोगाचा शिकार होऊ शकतो. सूर्यकिरणांच्या सेवनानेही असे रोग इत्यादी नष्ट होण्याचे येथे संकेत आहेत. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पार्षद्वाणः) वाणी विध्वंसक रोग आदि ने (जिविम्) वृद्ध, (उद्धितम्) अपनी स्थिर स्थिति से उखड़े, (शयानम्) सोते हुए, अतएव, असावधान (प्रस्कण्वम्) प्रकृष्ट स्तोता बुद्धिमान् को (सम् असादयत्) दबोचा; तब उस (वृकः) आक्रमण के शिकार, (ऋषिः) मन्त्रद्रष्टा ने (त्वोतः) परमेश्वर से आदेश--प्रेरणा पाये हुए ने (दस्यवे) हिंसक लुटेरों के लिये--उसके प्रभाव को दूर करने हेतु (गवां सहस्राणि) अनेक सूर्यकिरणों का (असिषादत् सद्) सेवन करना चाहा॥२॥
भावार्थ
प्रकृष्ट स्तोता किन्तु असावधान हो वाणी का प्रयोग करने वाला विद्वान् भी कभी अचानक वाणी से हिंसक रोगादि का शिकार हो जाता है। सूर्य किरणों से ऐसे रोग आदि नष्ट होने का यहाँ इंगित किया गया है॥२॥
विषय
ज्ञानमय प्रभु एवं उपदेश से ज्ञान की याचना।
भावार्थ
( पार्षद् वाणः ) वाणी अर्थात् वेदवाणी का सेवन करने वाला विद्वान् ( शयानम् ) अन्धकार में सोते के समान (जिव्रिम् ) जीर्ण, वा प्रसन्न करने वाले, (उद्-हितम् ) उत्तम सम्बन्ध में बद्ध ( प्रस्कण्वं ) उत्तम तेजस्वी, शिष्य वर्ग को ( सम् असादयत् ) प्राप्त करे और ( वृकः दस्यवे गवां सहस्राणि सिषासद् ) हल जिस प्रकार भूमि के तोड़ने वाले किसान के लाभ के लिये सहस्रों अन्न प्रदान करता है, उसी प्रकार (त्वा-उतः) तेरी रक्षा में रहने वाला ( वृकः ) तेजोमय ज्ञान को प्रकट करने वाला ( ऋष्टि: ) ज्ञानदर्शी पुरुष ( दस्यवे ) दानशील आत्मसमर्पक शिष्य के लाभ के लिये ( गवां सहस्राणि ) सहस्रों वेदवाणियों को ( असिषासत् ) प्रदान करे। अथवा वह ऋषि ( दस्यवे वृकः ) दस्यु, दुष्ट जन के लिये वृक के समान भयजनक होकर ( गवां सहस्राणि असिषासत् ) सहस्रों भूमियों का भोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ३, ९ निचृद् बृहती। ५ विराड् बृहती। ७ बृहती। २ विराट् पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
दस्यवे वृकः
पदार्थ
[१] (पार्षद्वाणः) = ज्ञान की वाणियों को देनेवाला प्रभु (प्रस्कण्वं) = मेधावी को मेधावी के लिए (शयानं) = सर्वत्र निवास करनेवाले (जिव्रिम्) = सनातन पुराण (उद्धितम्) = उत्कृष्ट हित करनेवाले प्रभु को (समसादयत्) = प्राप्त कराते हैं। प्रभुकृपा से ही एक मेधावी पुरुष प्रभु का दर्शन करता है। [२] (गवां) = इन ज्ञान की वाणियों का (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा व्यक्ति (सहस्त्राणि) = सहस्रों धनों का (असिषासद्) = संभजन करनेवाला होता है। हे प्रभो ! (त्वा ऊतः) आपसे रक्षित किया गया यह व्यक्ति (दस्यवे) = विनाशक वृत्ति के लिए [दसु उपक्षये] (वृकः) = भेड़िये के समान होता है, अर्थात् इन दास्यव वृत्तियों को समाप्त करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान से ही हम प्रभुदर्शन कर पाते हैं। प्रभु से रक्षित होकर हम दास्यव भावनाओं को समाप्त करनेवाले होते हैं।
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