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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 9
    ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यस्या॒यं विश्व॒ आर्यो॒ दास॑: शेवधि॒पा अ॒रिः । ति॒रश्चि॑द॒र्ये रुश॑मे॒ परी॑रवि॒ तुभ्येत्सो अ॑ज्यते र॒यिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अ॒यम् । विश्वः॑ । आर्यः॑ । दासः॑ । शे॒व॒धि॒ऽपाः । अ॒रिः । ति॒रः । चि॒त् । अ॒र्ये । रुश॑मे । पवी॑रवि । तुभ्य॑ । इत् । सः । अ॒ज्य॒ते॒ । र॒यिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरिः । तिरश्चिदर्ये रुशमे परीरवि तुभ्येत्सो अज्यते रयिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । अयम् । विश्वः । आर्यः । दासः । शेवधिऽपाः । अरिः । तिरः । चित् । अर्ये । रुशमे । पवीरवि । तुभ्य । इत् । सः । अज्यते । रयिः ॥ ८.५१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This entire world whether it is dynamic and progressive, or reactionary and slavish, whether it guards the wealth of life or destroys it, all this wealth, directly or indirectly, is circulating within the presence of Indra, the master, awfully armed, destroyer of destroyers, to whom it really and ultimately belongs.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या जगात भिन्न विभिन्न भावना असलेल्या सर्व व्यक्ती ऐश्वर्याच्या इच्छुक असतात; परंतु या ऐश्वर्याचा अध्यक्ष एकमात्र परम ऐश्वर्यवान परमेश्वरच आहे. त्याने निर्दिष्ट केलेल्या साधनांनीच उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होते. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अयम्) यह (विश्वः) सकल संसार, भले ही वह (आर्यः) प्रगतिशील हो या (दासः) प्रगति का विध्वंसक हो; (शेवधिपाः) धन रक्षक हो या (अरिः) लूटने वाला शत्रु हो (यस्य) जिसके पीछे है; (सः रयिः) वह ऐश्वर्य (तिरः चित्) अप्रत्यक्षतः (अर्ये) स्वामिभूत, (रुशमे) हिंसक भावना के मारने वाले (पवीरवि) साधनयुक्त (तुभ्येत्) आप इन्द्र में ही स्थापित है॥९॥

    भावार्थ

    संसार में भाँति-भाँति की भावनाओं वाले सभी व्यक्ति ऐश्वर्य के इच्छुक हैं, परन्तु इस ऐश्वर्य का मुखिया तो एकमात्र परम ऐश्वर्यशाली भगवान् ही है, उससे निर्दिष्ट साधनों से ही उत्तम ऐश्वर्य मिल सकता है॥९॥

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    विषय

    सर्वस्वामी और स्तुत्य प्रभु।

    भावार्थ

    ( यस्य ) जिस प्रभु का ( विश्वः आर्यः ) समस्त श्रेष्ठ ( अरिः ) पुरुष ( दासः ) सेवकवत् ( शेवधि-पाः ) उसी के खज़ाने की रक्षा करने वाला है। उस ( अर्ये ) स्वामी ( रुशमे ) सर्व नियन्ता, ( पवीरवि ) पापनिवारक राजदण्डवत् परम तप रूप वज्र के धारक प्रभु के अधीन समस्त विश्व विद्यमान है। हे प्रभो ! ( सः रयिः तुभ्य इत् अज्यते ) यह सब मूर्त्त संसार तेरे ही गुणों के दर्शन के लिये प्रकट है। अथवा ( यस्यायं विश्वः आर्यः दासः ) जिसका यह समस्त श्रेष्ठ जन सेवकवत् है जिसका स्वयं अपने खजाने को बचानेवाला शत्रुतुल्य है, जो धन ( अर्ये रुशमे पवीरवि ) वैश्य, शस्त्रधारी क्षत्रिय में ( तिरः चित् ) सुगुप्त है वह भी ( तुभ्य इत् अज्यते ) तेरे लिये ही प्रकट प्राप्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ३, ९ निचृद् बृहती। ५ विराड् बृहती। ७ बृहती। २ विराट् पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अर्य-रुशम

    पदार्थ

    [१] (यस्य) = जिसका (अयं) = यह (विश्वः) = सब (आर्य:) = श्रेष्ठ, (दासः) = [दसु उपक्षये] वासनाओं का क्षय करनेवाला (शेवधिपाः) = शक्ति व ज्ञानरूप कोश का रक्षण करनेवाला (अरि:) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला [ॠ गतौ] है, अर्थात् ये 'आर्य, दास, शेवधिपा व अरि' उस प्रभु के सच्चे उपासक हैं। [२] वे प्रभु (तिरः चित्) = तिरोहित रूप में होते हुए भी (अर्ये) = जितेन्द्रिय पुरुष में, (रुशमे) = शत्रुओं का संहार करनेवाले पुरुष में, (पवीरवि) = शत्रुघातक अस्त्रोंवाले पुरुष में (अज्यते) = व्यक्त होते हैं। (सः) = वह (रयिः) - ऐश्वर्यभूत प्रभु (तुभ्य इत्) = तेरे लिए भी अज्यसे व्यक्त होता है। हम भी 'अर्य व रुशम' बनें और प्रभु का दर्शन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सबमें तिरोहितरूप से रह रहे हैं। जो जितेन्द्रिय व वासनारूप शत्रुओं का संहार करनेवाला बनता है, उसमें वे प्रभु प्रकट होते हैं।

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