Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 65 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदि॑न्द्र॒ प्रागपा॒गुद॒ङ्न्य॑ग्वा हू॒यसे॒ नृभि॑: । आ या॑हि॒ तूय॑मा॒शुभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । प्राक् । अपा॑क् । उद॑क् । न्य॑क् । वा॒ । हू॒यसे॑ । नृऽभिः॑ । आ । या॒हि॒ । तूय॑म् । आ॒शुऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र प्रागपागुदङ्न्यग्वा हूयसे नृभि: । आ याहि तूयमाशुभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । प्राक् । अपाक् । उदक् । न्यक् । वा । हूयसे । नृऽभिः । आ । याहि । तूयम् । आशुऽभिः ॥ ८.६५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यद्) = जब आप (प्राग्) = पूर्व में, (अपाक्) = पश्चिम में, (उदङ्) = उत्तर में (वा) = या (न्यग्) = दक्षिण में कहीं भी (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (हूयसे) = पुकारे जाते हैं। तो (तूयम्) = शीघ्र ही (आशुभिः) = शीघ्रगामी अश्वों से (आयाहि) = हमें प्राप्त होइए। [२] आपने ही तो हमारा रक्षण करना है। इस भवसागर में आप ही नाव हैं। इस जीवनयात्रा में आप ही रथ हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- सर्वव्यापक प्रभु को हम पुकारते हैं तो वे शीघ्र ही हमारी पुकार को सुन उपस्थित होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top