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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्रप्र॑ वस्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॑ म॒न्दद्वी॑रा॒येन्द॑वे । धि॒या वो॑ मे॒धसा॑तये॒ पुरं॒ध्या वि॑वासति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽप्र॑ । वः॒ । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । इष॑म् । म॒न्दत्ऽवी॑राय । इन्द॑वे । धि॒या । वः॒ । मे॒धऽसा॑तये । पु॒र॒म्ऽध्या । आ । वि॒वा॒स॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रप्र वस्त्रिष्टुभमिषं मन्दद्वीरायेन्दवे । धिया वो मेधसातये पुरंध्या विवासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽप्र । वः । त्रिऽस्तुभम् । इषम् । मन्दत्ऽवीराय । इन्दवे । धिया । वः । मेधऽसातये । पुरम्ऽध्या । आ । विवासति ॥ ८.६९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (मन्दद् वीराय) = वीरों को आनन्दित करनेवाले (इन्दवे) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (वः) = तुम्हारी (त्रिष्टुभं) = 'काम, क्रोध, लोभ' तीनों को समाप्त करनेवाली [त्रिष्टुभ्] (इषं) = इच्छा को (प्र प्र) = प्रकर्षेण प्रकट करो, प्रभु के प्रति अपनी इसी इच्छा को प्रकट करो कि प्रभु हमें 'काम, क्रोध व लोभ' से ऊपर उठाएँ। [२] उपर्युक्त इच्छा के प्रबल होने पर वे प्रभु (वः) = तुम्हारे (मेधसातये) = यज्ञों के संभजन के लिए इसलिए कि तुम्हारी वृत्ति यज्ञात्मक बने, (पुरन्ध्या) = शरीररूप पुरी का धारण करनेवाली (धिया) = बुद्धि से (आविवासति) = तुम्हें सत्कृत करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- जब हम प्रभु के प्रति इस कामना को प्रकट करते हैं कि हम 'काम, क्रोध, लोभ' को जीत पाएँ, तो प्रभु हमें यज्ञशील बनने के लिए पालक बुद्धि प्राप्त कराते हैं।

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