ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
यद॒ङ्ग त॑विषीयवो॒ यामं॑ शुभ्रा॒ अचि॑ध्वम् । नि पर्व॑ता अहासत ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ङ्ग । त॒वि॒षी॒ऽय॒वः॒ । याम॑म् । शुभ्राः॑ । अचि॑ध्वम् । नि । पर्व॑ताः । अ॒हा॒स॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदङ्ग तविषीयवो यामं शुभ्रा अचिध्वम् । नि पर्वता अहासत ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अङ्ग । तविषीऽयवः । यामम् । शुभ्राः । अचिध्वम् । नि । पर्वताः । अहासत ॥ ८.७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
विषय - अविद्या पर्वत विदारण
पदार्थ -
[१] हे मरुतो [प्राणो] ! (यत्) = जब (अङ्ग) = शीघ्र ही (तविषीयवः) = बल को जोड़ने की कामनावाले होते हुए (शुभ्राः) = जीवन को उज्ज्वल बनानेवाले आप (यामं अचिध्वम्) = संयम का संचय करते हो, जितेन्द्रियता की वृद्धि करते हो तो (पर्वताः) = अविद्या पर्वत (नि अहासत) = निश्चय से दूर कर दिये जाते हैं । [२] प्राणसाधक के मार्ग में अविद्या पर्वत रुकावट नहीं बने रहते।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से जितेन्द्रिय बनकर हम अविद्या को विनष्ट करनेवाले होते हैं।
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