ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 1
वि॒शोवि॑शो वो॒ अति॑थिं वाज॒यन्त॑: पुरुप्रि॒यम् । अ॒ग्निं वो॒ दुर्यं॒ वच॑: स्तु॒षे शू॒षस्य॒ मन्म॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒शःऽवि॑सः । वः॒ । अति॑थिम् । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् । अ॒ग्निम् । वः॒ । दुर्य॑म् । वचः॑ । स्तु॒षे । शू॒षस्य॑ । मन्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विशोविशो वो अतिथिं वाजयन्त: पुरुप्रियम् । अग्निं वो दुर्यं वच: स्तुषे शूषस्य मन्मभिः ॥
स्वर रहित पद पाठविशःऽविसः । वः । अतिथिम् । वाजऽयन्तः । पुरुऽप्रियम् । अग्निम् । वः । दुर्यम् । वचः । स्तुषे । शूषस्य । मन्मऽभिः ॥ ८.७४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - शूषस्य दुर्यम्
पदार्थ -
[१] (वाजयन्तः) = शक्ति को प्राप्त करने की कामनावाले लोग उस प्रभु के (मन्मभिः) = मननीय स्तोत्रों के हेतु से (वचः स्तुषे) = स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं। जो प्रभु (वः) = तुम (विशः विशः) = प्रजाओं के (अतिथिं) = अतिथि हैं- निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं। (पुरुप्रियम्) = पालक व पूरक हैं तथा पालन व पूरण के द्वारा प्रीणन करनेवाले हैं। [२] उस प्रभु का स्तवन करते हैं, जो (वः अग्निं) = तुम सबके अग्रणी हैं-आगे ले चलनेवाले हैं तथा (शूषस्य दुर्यम्) = सुख व बल के गृह हैं। प्रभु अपने उपासक को शक्ति प्राप्त कराते हैं। इस शक्ति के द्वारा उसका जीवन सुखी होता है। [३] मननपूर्वक प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी उन्हीं गुणों को धारण करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- मननपूर्वक प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी शक्तिशाली बनें। यही सुख- प्राप्ति का मार्ग है।
इस भाष्य को एडिट करें