ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
इ॒मं नु मा॒यिनं॑ हुव॒ इन्द्र॒मीशा॑न॒मोज॑सा । म॒रुत्व॑न्तं॒ न वृ॒ञ्जसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । नु । मा॒यिन॑म् । हु॒वे॒ । इन्द्र॑म् । ईशा॑नम् । ओज॑सा । म॒रुत्व॑न्तम् । न वृ॒ञ्जसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नु मायिनं हुव इन्द्रमीशानमोजसा । मरुत्वन्तं न वृञ्जसे ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । नु । मायिनम् । हुवे । इन्द्रम् । ईशानम् । ओजसा । मरुत्वन्तम् । न वृञ्जसे ॥ ८.७६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
विषय - मापिनं, ओजसा ईशानम्
पदार्थ -
[१] (नु) = निश्चय से मैं (इमं इन्द्रम्) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु को हुवे पुकारता हूँ। उस इन्द्र को, जो (मायिनम्) = प्रज्ञावाले हैं- सर्वज्ञ हैं, (ओजसा ईशानम्) = अपने बल से सम्पूर्ण संसार के ईशान [स्वामी] हैं। [२] (न) [च] =और मैं उस इन्द्र को पुकारता हूँ जो (मरुत्वन्तम्) = [मरुतः प्राणाः] प्राणशक्तिवाले हैं। इन प्राणों के द्वारा (वृञ्जसे) = शत्रुओं के छेदन के लिये हैं । प्राणसाधना के द्वारा न केवल रोगों का ही नाश होता है, अपितु वासनाओं का भी विनाश होता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् हैं। हमें प्राणों को देते हुए इस योग्य बनाते हैं कि हम रोगों व वासनाओं को विच्छिन्न कर सकें।
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