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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अनु॑ त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे क्रक्ष॑माणमकृपेताम् । इन्द्र॒ यद्द॑स्यु॒हाभ॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । त्वा॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । क्रक्ष॑माणम् । अ॒कृ॒पे॒ता॒म् । इन्द्र॑ । यत् । द॒स्यु॒ऽहा । अभ॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु त्वा रोदसी उभे क्रक्षमाणमकृपेताम् । इन्द्र यद्दस्युहाभवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । त्वा । रोदसी इति । उभे इति । क्रक्षमाणम् । अकृपेताम् । इन्द्र । यत् । दस्युऽहा । अभवः ॥ ८.७६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यद्) = जब तू (दस्युहा अभयः) = वासनारूप दास्यववृत्तियों को नष्ट करनेवाला होता है, तो (क्रक्षमाणम्) = शत्रुओं को कुचलनेवाले (त्वा अनु) = तेरे अनुसार (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी - मस्तिष्क व शरीर (अकृपेताम्) = सामर्थ्यसम्पन्न बनते हैं । [२] यह इन्द्र जितना - जितना वासना का विनाश करता चलता है, उसी अनुपात में उसके मस्तिष्क व शरीर शक्तिसम्पन्न होते चलते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर वासना का विनाश करें। तभी हमारे शरीर दृढ़ व मस्तिष्क दीप्त बनेंगे।

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