ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 12
वाच॑म॒ष्टाप॑दीम॒हं नव॑स्रक्तिमृत॒स्पृश॑म् । इन्द्रा॒त्परि॑ त॒न्वं॑ ममे ॥
स्वर सहित पद पाठवाच॑म् । अ॒ष्टाऽप॑दीम् । अ॒हम् । नव॑ऽस्रक्तिम् । ऋ॒त॒ऽस्पृश॑म् । इन्द्रा॑त् । परि॑ । त॒न्व॑म् । म॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचमष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम् । इन्द्रात्परि तन्वं ममे ॥
स्वर रहित पद पाठवाचम् । अष्टाऽपदीम् । अहम् । नवऽस्रक्तिम् । ऋतऽस्पृशम् । इन्द्रात् । परि । तन्वम् । ममे ॥ ८.७६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
विषय - अष्टापदी वाक्
पदार्थ -
[१] (अहम्) = मैं, गतमन्त्र के अनुसार 'दस्युहा' बनकर (इन्द्रात्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (वाचम्) = ज्ञान की वाणी को (परिममे) = अपने अन्दर निर्मित करता हूँ, जो (अष्टापदीं) = ' कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादन, सम्बन्ध, अधिकरण व सम्बोधन' रूप आठ पदोंवाली हैं। (नवस्त्रक्तिम्) = 'तिप् तस् सि-सिप् धस् थ मिप् वस् मस्' रूप नौ रूपों में निर्मित होनेवाली है। (ऋतस्पृशम्) = सब सत्यविद्याओं के स्पर्शवाली है। 'नवस्रक्तिम्' शब्द का यह भी अर्थ है कि जो नवीन स्तुत्य जीवन का निर्माण करनेवाली है। [२] इस ज्ञान की वाणी के साथ मैं प्रभु से (तन्यम्) = शक्तियों के विस्तार को [परिममे =] अपने में निर्मित करता हूँ।
भावार्थ - भावार्थ- मैं प्रभु से ज्ञान की वाणी को और शक्तियों के विस्तार को प्राप्त करता हूँ । अगले सूक्त का ऋषि देवता भी 'कुरु सुति काण्व' व 'इन्द्र' ही हैं-
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