ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 9
ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वामिद्य॑व॒युर्मम॒ कामो॑ ग॒व्युर्हि॑रण्य॒युः । त्वाम॑श्व॒युरेष॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । इत् । य॒व॒ऽयुः । मम॑ । कामः॑ । ग॒व्युः । हि॒र॒ण्य॒युः । त्वाम् । अ॒श्व॒ऽयुः । आ । ई॒ष॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिद्यवयुर्मम कामो गव्युर्हिरण्ययुः । त्वामश्वयुरेषते ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । इत् । यवऽयुः । मम । कामः । गव्युः । हिरण्ययुः । त्वाम् । अश्वऽयुः । आ । ईषते ॥ ८.७८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
विषय - यवयुः, गव्युः, हिरण्ययुः, अश्वयुः [कामः]
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (मम) = मेरा (यवयुः कामः) = [ यवः यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराई को दुर करने व अच्छाई को प्राप्त करने का काम [मनोरथ] (त्वां इत्) = आपको ही (एषते) = प्राप्त होता है, अर्थात् मैं 'यव' की कामनावाला होता हुआ आपको ही प्राप्त होता हूँ। इसी प्रकार (गव्युः) = ज्ञानेन्द्रियों की प्राप्ति का काम [मनोरथ] आपको ही प्राप्त होता है। [२] इसी प्रकार (हिरण्ययुः) = हितरमणीय ज्ञान की अभिलाषा आपकी ओर ही मुझे लाती है तथा (अश्वयुः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों की कामना (त्वाम्) = आपको ही प्राप्त करती है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु ही हमें बुराइयों से दूर करके अच्छाइयों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, हितरमणीय ज्ञानों व उत्तम कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं।
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