ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 10
तवेदि॑न्द्रा॒हमा॒शसा॒ हस्ते॒ दात्रं॑ च॒ना द॑दे । दि॒नस्य॑ वा मघव॒न्त्सम्भृ॑तस्य वा पू॒र्धि यव॑स्य का॒शिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒हम् । आ॒ऽशसा॑ । हस्ते॑ । दात्र॑म् । च॒न । आ । द॒दे॒ । दि॒नस्य॑ । वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । सम्ऽभृ॑तस्य । वा॒ । पू॒र्धि । यव॑स्य । का॒शिना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवेदिन्द्राहमाशसा हस्ते दात्रं चना ददे । दिनस्य वा मघवन्त्सम्भृतस्य वा पूर्धि यवस्य काशिना ॥
स्वर रहित पद पाठतव । इत् । इन्द्र । अहम् । आऽशसा । हस्ते । दात्रम् । चन । आ । ददे । दिनस्य । वा । मघऽवन् । सम्ऽभृतस्य । वा । पूर्धि । यवस्य । काशिना ॥ ८.७८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
विषय - दान व प्रभुप्राप्ति
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अहम्) = मैं (तव इत् आशसा) = आपकी ही आशा से [hoping] प्राप्ति की कामना से [desire] (हस्ते) = हाथ में (दात्रम्) = दान की क्रिया को (चनः) = निश्चय से (आददे) = ग्रहण करता हूँ। दान की वृत्ति हमारी बुराइयों का अवदान [खण्डन] करती है और इस प्रकार हमारे जीवनों को पवित्र बनाकर हमें प्रभुप्राप्ति के योग्य करती है। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (संभृतस्य दिनस्य) = सम्यक् भरण किये गये (दिनस्य) = दिन के (काशिना) = [light, splendour] प्रकाश से (वा) = तथा (यवस्य) = बुराई को पृथक् करने व अच्छाई को धारण करने के प्रकाश से हमारे जीवन को (पूर्धि) = भरिये।
भावार्थ - भावार्थ- हम दान की वृत्तिवाले बनकर पवित्र जीवनवाले हों। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है। हमारा दिन उत्तम कार्यों से भरा हुआ हो। हम सदा बुराई को दूर करने और अच्छाई को धारण करनेवाले बनें। इसी से जीवन प्रकाशमय होगा। गतमन्त्र के अनुसार अपने प्रत्येक दिन को उत्तम कार्यों से भरनेवाला यह 'कृत्नु' है। तपस्वी होने से 'भार्गव' है। यह सोमरक्षण के द्वारा ही ऐसा बन पाता है-
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