ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
व॒यं हि वां॒ हवा॑महे विप॒न्यवो॒ विप्रा॑सो॒ वाज॑सातये । ता व॒ल्गू द॒स्रा पु॑रु॒दंस॑सा धि॒याश्वि॑ना श्रु॒ष्ट्या ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । हि । वा॒म् । हवा॑महे । वि॒प॒न्यवः॑ । विप्रा॑सः । वाज॑ऽसातये । ता । व॒ल्गू इति॑ । द॒स्रा । पु॒रु॒ऽदंस॑सा । धि॒या । अश्वि॑ना । श्रु॒ष्टी । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं हि वां हवामहे विपन्यवो विप्रासो वाजसातये । ता वल्गू दस्रा पुरुदंससा धियाश्विना श्रुष्ट्या गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । हि । वाम् । हवामहे । विपन्यवः । विप्रासः । वाजऽसातये । ता । वल्गू इति । दस्रा । पुरुऽदंससा । धिया । अश्विना । श्रुष्टी । आ । गतम् ॥ ८.८७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
विषय - विप्रासः विपन्यवः
पदार्थ -
[१] हे प्राणापानो! (वयम्) = हम (विपन्यवः) = विशिष्ट स्तुतिवाले होते हुए (वि प्रासः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी बनकर (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिये (हि) = निश्चयपूर्वक (वाम्) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं प्राणसाधना ही तो हमें सब शक्तियों को प्राप्त कराती है। [२] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (ता) = वे आप दोनों (वल्गू) = सुन्दर गतिवाले हो - जीवन को उत्तम गतिवाला बनाते हो । (दस्त्रा) = शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले हो । (पुरुदंससा) = पालक व पूरक कर्मोंवाले हो- आप शरीर का पालन करते हो, तो मन का आप पूरण करनेवाले हो। आप (धिया) = बुद्धि को प्राप्त कराने के हेतु से (श्रुष्टी) = शीघ्र ही (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना हमें शक्ति प्राप्त कराती है - यह हमें बुद्धि देती है। शक्ति व बुद्धि से सम्पन्न बनकर हम स्तोता, ज्ञानी व पवित्र जीवनवाले बन पाते हैं। यह विपन्यु [स्तोता] ही अगले सूक्त का ऋषि 'नोधा' बनता है [नौति इति नोधा:] यह इन्द्र का स्तवन करता हुआ कहता है-
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