ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं॒ वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः । अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः॒ । द॒स्मम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । वसोः॑ । म॒न्दा॒नम् । अन्ध॑सः । अ॒भि । व॒त्सम् । न । स्वस॑रेषु । धे॒नवः॑ । इन्द्र॑म् । गीः॒ऽभिः । न॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वः । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसोः । मन्दानम् । अन्धसः । अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनवः । इन्द्रम् । गीःऽभिः । नवामहे ॥ ८.८८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - दस्मम् ऋतीषहम्
पदार्थ -
[१] (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों के द्वारा (स्वसरेषु अभिर्नवामहे) = दिनों में [सूर्यकर्तृकेषु दिवसेषु नि० ] प्रातः-सायं [अभि] स्तुत करते हैं- प्रभु की ओर जाते हैं, प्रभु की उपासना में बैठते हैं। इस प्रकार प्रभु की ओर जाते हैं (न) = जैसे स्वसरेषु [सुष्ठु अस्यन्ते प्रेर्यन्ते गावः अत्र ] गोष्ठों में (धेनवः) = गौवें (वत्सम्) = बछड़े की ओर जाती हैं। जिस प्रकार प्रेम से भरी हुई गौवें जाती हैं, उसी प्रकार प्रेम से परिपूर्ण हृदयोंवाले हम प्रभु की ओर जानेवाले बनें। [२] उस प्रभु की ओर हम जायें, जो (वः दस्यम्) = तुम सबके दुःखों का उपक्षय करनेवाले हैं। (ऋतीबहम्) = [ऋतयो बाधकाः शत्रवः] काम-क्रोध आदि बाधक शत्रुओं का पराभव करनेवाले (वसोः) = हमारे निवासों को उत्तम बनानेवाले (अन्धसः) = सोम [वीर्य] के द्वारा (मन्दानम्) = हमें हैं। आनन्दित करनेवाले हैं। वस्तुतः प्रभु काम-क्रोध आदि को विनष्ट करके हमें सोमरक्षण द्वारा सब दुःखों से दूर व आनन्द से परिपूर्ण जीवनवाला बनाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रातः - सायं प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमारे अन्दर सोम का रक्षण करते हैं और हमारे दुःखों को दूर करके हमें आनन्दमय जीवनवाला बनाते हैं।
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