ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 6
परि॒ सप्ति॒र्न वा॑ज॒युर्दे॒वो दे॒वेभ्य॑: सु॒तः । व्या॒न॒शिः पव॑मानो॒ वि धा॑वति ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सप्तिः॑ । न । वा॒ज॒ऽयुः । दे॒वः । दे॒वेभ्यः॑ । सु॒तः । वि॒ऽआ॒न॒शिः । पव॑मानः । वि । धा॒व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सप्तिर्न वाजयुर्देवो देवेभ्य: सुतः । व्यानशिः पवमानो वि धावति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सप्तिः । न । वाजऽयुः । देवः । देवेभ्यः । सुतः । विऽआनशिः । पवमानः । वि । धावति ॥ ९.१०३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
विषय - देव: देवेभ्यः सुतः
पदार्थ -
(सप्तिः न) = युद्ध में सर्पणशील घोड़े के समान यह सोम (वाजयुः) = रोगकृमि आदि शत्रुओं के साथ संग्राम की कामना वाला होता है। (देवः) = प्रकाशमय वह सोम (देवेभ्यः) = शरीरस्थ देवों के लिये (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। इस सुरक्षित सोम से ही सब देवों को शक्ति प्राप्त होती है । यह (परि व्यानशि:) = शरीर में चारों ओर व्याप्त होनेवाला सोम (पवमानः) = पवित्रता को करनेवाला होता है और (विधावति) = शरीर में विशिष्ट गतिवाला होकर उसका शोधन कर डालता है ।
भावार्थ - भावार्थ - शरीरस्थ सोम 'शक्ति, दिव्यगुणों व पवित्रता' को प्राप्त करानेवाला होता है । सोमरक्षण से 'ज्ञान व बल' दोनों ही शक्तियाँ ' शिखम् अमति' शिखर पर पहुँचनेवाली होती हैं सो इन शक्तियों वाले 'शिखण्डिन्यौ' हैं, ये वस्तुतत्व को देखनेवाले होने से 'काश्यप्यौ' तथा निरन्तर क्रियाशील होने से 'अप्सरसौ' [अप्+सरस्] हैं। अपना पूरण करने से 'पर्वत' हैं- ज्ञानोपदेश से सब के शोधन में प्रवृत्त होने से 'नारद' है [नरसमूहं दायति ] । ये कहते हैं-
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