ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि ते॒ मधु॑ना॒ पयोऽथ॑र्वाणो अशिश्रयुः । दे॒वं दे॒वाय॑ देव॒यु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ते॒ । मधु॑ना । पयः॑ । अथ॑र्वाणः । अ॒शि॒श्र॒युः॒ । दे॒वम् । दे॒वाय॑ । दे॒व॒ऽयु ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि ते मधुना पयोऽथर्वाणो अशिश्रयुः । देवं देवाय देवयु ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । ते । मधुना । पयः । अथर्वाणः । अशिश्रयुः । देवम् । देवाय । देवऽयु ॥ ९.११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
विषय - माधुर्य व प्रभु प्राप्ति
पदार्थ -
[१] (अथर्वाणः) = [न थर्वति] स्थिर वृत्ति के लोग (ते) = हे सोम ! तेरे (पयः) = रस को अथवा तेरी आप्यायन शक्ति को (मधुना) = माधुर्य के हेतु से (अभि अशिश्रयुः) = सेवन करते हैं । अर्थात् सोम की इस आप्यायनशक्ति से जीवन को वे मधुर बनाते हैं । [२] इस सोम के 'पयस्' को (देवाय) = उस प्रकाशमय प्रभु की प्राप्ति के लिये सेवन करते हैं। यह 'पयस्' देवम् प्रकाशमय है। तथा देवयु उस प्रकाशमय प्रभु से हमें मिलानेवाला है [यु मिश्रणे ] ।
भावार्थ - भावार्थ-रक्षित सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु के प्रकाश का साधन बनता है ।
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