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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि ते॒ मधु॑ना॒ पयोऽथ॑र्वाणो अशिश्रयुः । दे॒वं दे॒वाय॑ देव॒यु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ते॒ । मधु॑ना । पयः॑ । अथ॑र्वाणः । अ॒शि॒श्र॒युः॒ । दे॒वम् । दे॒वाय॑ । दे॒व॒ऽयु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि ते मधुना पयोऽथर्वाणो अशिश्रयुः । देवं देवाय देवयु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । ते । मधुना । पयः । अथर्वाणः । अशिश्रयुः । देवम् । देवाय । देवऽयु ॥ ९.११.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (ते) त्वां (अथर्वाणः) दृढविश्वासवन्तो विद्वांसः (अशिश्रयुः) आश्रयन्ते यस्त्वं (देवाय) दिव्यशक्तिप्रदानाय (देवम्) केवलदेवोऽसि तथा (देवयु) दिव्यशक्तिमिच्छुर्जनः (पयः) भवद्रसम् (मधुना) माधुर्येण (अभि) सम्यग्गृह्णाति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् (ते) तुमको (अथर्वाणः) “न थर्वति स्वाधिकारं न मुञ्चतीत्यथर्वा” जो अपने अधिकार को न छोड़े, उसका नाम अथर्वा है, ऐसे दृढ़विश्वासी विद्वान् (अशिश्रयुः) आश्रयण करते हैं, जो तुम (देवाय) दिव्य शक्तियों के देने के लिये (देवम्) एकमात्र देव हो और (देवयु) “देवमिच्छतीति देवयु” शक्ति की इच्छा करनेवाला पुरुष (पयः) आपके रस को (मधुना) मधुरता के साथ (अभि) भली-भाँति ग्रहण करता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे दृढ़विश्वासी विद्वानों ! आप लोग उस रस का पान करो, जिससे बढ़कर संसार में अन्य कोई रस नहीं और उपास्यत्वेन उस देव का आश्रयण करो, जिससे बढ़ कर और कोई उपास्य नहीं। वास्तव में बात भी यही है कि परमात्मा के आनन्द के बराबर और कोई आनन्द नहीं, इसी अभिप्राय से कहा है कि “रसो ह्येव सः रसं हि लब्ध्वा एष आनन्दी भवति” तै० २।७। परमात्मा रस अर्थात् आनन्दरूप है, उसके आनन्द को लाभ करके पुरुष आनन्दित होता है। इसी अभिप्राय से गीता में कहा है कि “यं लब्ध्वा नापरो लाभः” उसको प्राप्त करने के अनन्तर फिर कोई प्राप्तव्य वस्तु नहीं रहती ॥२॥

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    विषय

    माधुर्य व प्रभु प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (अथर्वाणः) = [न थर्वति] स्थिर वृत्ति के लोग (ते) = हे सोम ! तेरे (पयः) = रस को अथवा तेरी आप्यायन शक्ति को (मधुना) = माधुर्य के हेतु से (अभि अशिश्रयुः) = सेवन करते हैं । अर्थात् सोम की इस आप्यायनशक्ति से जीवन को वे मधुर बनाते हैं । [२] इस सोम के 'पयस्' को (देवाय) = उस प्रकाशमय प्रभु की प्राप्ति के लिये सेवन करते हैं। यह 'पयस्' देवम् प्रकाशमय है। तथा देवयु उस प्रकाशमय प्रभु से हमें मिलानेवाला है [यु मिश्रणे ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ-रक्षित सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु के प्रकाश का साधन बनता है ।

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    विषय

    विद्वानों का राजशक्ति से सहयोग। उसका उत्तम फल।

    भावार्थ

    (अथर्वाणः) शान्तिजनक अहिंसक जन (ते देवाय) तुझ तेजस्वी पुरुष के (देवं) प्रकाशक (देवयु) विद्वानों के अभिमत, उनके रक्षक (पयः) पोषण बल को (मधुना) ज्ञान वा अन्नादि से (अभि अशिश्रयुः) परिष्कृत करते हैं। राजा में बल है तो विद्वानों में ज्ञान है। विद्वान् ही उसका सहयोग करके उस के बलैश्वर्य को ज्ञानसम्पन्न करें। उस को अन्धा बैल न बना रहने दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यप। देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ९ निचृद गायत्री। ५–८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, you are the lover of the noble and divine, and you love to bless humanity to rise to divinity. The Atharvans, people on the rock-bed foundation of piety, are steadfast, they direct their concentrated mind to you and drink the life giving nectar mixed with honey sweets of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपदेश करतो की, हे दृढविश्वासू विद्वानांनो! ज्यापेक्षा अधिक जगात एकही रस नाही अशा रसाचे पान करा. ज्याच्यापेक्षा मोठा कोणी उपास्य नाही अशा देवाची उपासना करण्यासाठी आश्रय घ्या. परमेश्वराच्या आनंदासारखा दुसरा कोणताही आनंद नाही. याच अभिप्रायाने म्हटलेले आहे ‘‘रसो ह्मेव स: रसं हि लब्ध्वा एष आनंद भवति’’ तै. २।७ परमेश्वर रस आनंदरूप आहे. त्याच्या आनंदाचा लाभ घेऊन पुरुष आनंदित होतो. यामुळेच गीतेत म्हटले आहे ‘‘यल्लब्ध्वा ना परो लाभ:’’ त्याला प्राप्त केल्यानंतर कोणतीही वस्तू प्राप्तव्य नसते ॥२॥

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