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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ब॒भ्रवे॒ नु स्वत॑वसेऽरु॒णाय॑ दिवि॒स्पृशे॑ । सोमा॑य गा॒थम॑र्चत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब॒भ्रवे॑ । नु । स्वऽत॑वसे । अ॒रु॒णाय॑ । दि॒वि॒ऽस्पृशे॑ । सोमा॑य । गा॒थम् । अ॒र्च॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बभ्रवे नु स्वतवसेऽरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बभ्रवे । नु । स्वऽतवसे । अरुणाय । दिविऽस्पृशे । सोमाय । गाथम् । अर्चत ॥ ९.११.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    भो मनुष्याः ! यूयं (बभ्रवे) विश्वम्भराय (स्वतवसे) बलस्वरूपिणे (दिविस्पृशे) आद्युलोकं व्याप्ताय (सोमाय) जगदुत्पादकाय (अरुणाय) सर्वव्यापकाय (नु) शीघ्रं (गाथम्) स्तुतिं (अर्चत) प्रादुर्भावयत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम (बभ्रवे) ‘बिभर्तीति बभ्रुः’ जो विश्वम्भर परमात्मा है और जो (स्वतवसे) बलस्वरूप है और  (दिविस्पृशे) जो द्युलोक तक फैला हुआ है (सोमाय) चराचर संसार का उत्पन्न करनेवाला है (अरुणाय) “ऋच्छतीत्यरुणः” जो सर्वव्यापक है, उसकी (नु) शीघ्र ही (गाथम्) स्तुति (अर्चत) करो ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! तुम ऐसे पुरुष की स्तुति करो, जो पूर्ण पुरुष अर्थात् द्युभ्वादि सब लोकों में पूर्ण हो रहा है और तेजस्वी और सर्वव्यापक है। इस भाव को वेद के अन्यत्र भी कई एक स्थलों में वर्णन किया है, जैसा कि “यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” अ १०।४।७ कि जिस की भूमि ज्ञान का साधन है, अन्तरिक्ष जिसका उदरस्थानीय है, जिस में द्युलोक मस्तक के सदृश कहा जा सकता है, उस सर्वोपरि ब्रह्म को हमारा नमस्कार है। जैसा इस मन्त्र में रूपकालङ्कार से द्युलोक को मूर्धास्थानीय कल्पना किया है, इसी प्रकार ‘दिविस्पृशम्’ इस शब्द में द्युलोक के साथ स्पर्श करनेवाला भी रूपकालङ्कार से वर्णन किया है, मुख्य नहीं।यही भाव “नभस्पृशं दीप्तमनेकवर्णम्” गीता इत्यादि के श्लोकों में वर्णित है ॥४॥

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    विषय

    सोम - गाथा - गान

    पदार्थ

    [१] (सोमाय) = शरीर में उत्पन्न होनेवाली सोमशक्ति के लिये (गाथम्) = स्तुति रूप वाणी का (अर्चत) = उच्चारण करो। सोम के गुणवर्णनात्मक मन्त्रों के द्वारा सोम का स्तवन करो। उस सोम का जो कि (नु) = निश्चय से (बभ्रवे) = शरीर का खूब ही भरण करनेवाला है। (स्वतवसे) = जो सोम आत्मिक बल को बढ़ानेवाला है। [२] उस सोम का गायन करो, जो कि (अरुणाय) = तेजस्विता के अरुण वर्णवाला है। अर्थात् जो सोम अपने रक्षक को तेजस्विता की अरुणता प्राप्त कराता है और (दिविस्पृशे) = ज्ञान के दृष्टिकोण से द्युलोक को छूनेवाला है। यह शरीर में हमें तेजस्वी बनाता है, मस्तिष्क में दीप्तिमय ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर का धारण करता है, आत्मिकबल को बढ़ाता है, हमें तेजस्वी व दीप्त मस्तिष्क बनाता है।

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    विषय

    विद्वान की वाणी का आदर।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! (बभ्रवे) सब के पालन पोषण में समर्थ (स्व-तवसे) स्वयं वा ऐश्वर्य से बलशाली, (अरुणाय) तेजस्वी, अन्यों से अपराजित (दिवि-स्पृशे) ज्ञान में चरम सीमा तक पहुंचे हुए या तेजोमय विजय वा परम पद में स्थित (सोमाय) ऐश्वर्ययुक्त जन के (गाथम्) वाणी या स्तुति की (अर्चत) अर्चना या आदर करो या उस के गुणों की स्तुति करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यप। देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ९ निचृद गायत्री। ५–८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Offer songs of adoration to Soma, lord sustainer of the universe, self-potent and omnipresent, who pervades boundless even to the heights of highest heavens.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की, हे माणसांनो! जो पूर्ण पुरुष द्यु भव इत्यादी सर्व लोकात पूर्ण परसरलेला आहे, तेजस्वी आणि सर्वव्यापक आहे अशा पुरुषाची तुम्ही स्तुती करा. या प्रकारचे वेदात अनेक उल्लेख आहेत. जसे ‘‘यस्य भूमि: प्रमामन्तरिक्षमुतोदरम् दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै जेष्ठाय ब्रह्मणे नम:’’ अ. १०।४।७ ज्याची भूमी ज्ञानाचे साधन आहे ज्याचे उदरस्थान अंतरिक्ष आहे. मस्तक द्युलोकाप्रमाणे आहे. त्या सर्वोत्कृष्ट ब्रह्माला आमचा नमस्कार असो. या मंत्रात द्युलोकाला रूपकालंकाराने मूर्धा स्थानी कल्पित केलेले आहे. हाच भाव ‘‘नभस्पृशं दीप्तमनेकवर्णम्’’ गीता इत्यादी श्लोकात आहे. ॥४॥

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