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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शिशुः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ना॒ना॒नं वा उ॑ नो॒ धियो॒ वि व्र॒तानि॒ जना॑नाम् । तक्षा॑ रि॒ष्टं रु॒तं भि॒षग्ब्र॒ह्मा सु॒न्वन्त॑मिच्छ॒तीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ना॒ना॒नम् । वै । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । धियः॑ । वि । व्र॒तानि॑ । जना॑नाम् । तक्षा॑ । रि॒ष्टम् । रु॒तम् । भि॒षक् । ब्र॒ह्मा । सु॒न्वन्त॑म् । इ॒च्छ॒ति॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नानानं वा उ नो धियो वि व्रतानि जनानाम् । तक्षा रिष्टं रुतं भिषग्ब्रह्मा सुन्वन्तमिच्छतीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नानानम् । वै । ऊँ इति । नः । धियः । वि । व्रतानि । जनानाम् । तक्षा । रिष्टम् । रुतम् । भिषक् । ब्रह्मा । सुन्वन्तम् । इच्छति । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 112; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    इस संसार में (वा उ) = निश्चय से (नः धियः) = हमारी बुद्धियाँ (नानानम्) = नाना प्रकार की हैं। (जनानाम्) = लोगों के (व्रतानि) = कर्म भी (वि) = विविध प्रकार के हैं। उदाहरणार्थ (तक्षा) = बढ़ई (रिष्टम्) = गाड़ी की टूट-फूट को (इच्छति) = चाहता है। जिससे उसकी मरम्मत करके वह अपनी जीविका का उपार्जन करे। (भिषग्) = वैद्य (रुतम्) = रोग को चाहता है कि उसे इलाज का अवसर प्राप्त हो। (ब्रह्मा) = ऋत्विजों का अधिष्ठाता मुख्य ऋत्विज (सुन्वन्तम्) = यज्ञशील पुरुष को चाहता है कि उसे यज्ञ कराने का अवसर प्राप्त हो। इसी प्रकार हे (इन्दो) = शक्तिशाली सोम ! तू (इन्द्राय परिस्रव) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये प्राप्त हो। सोम जितेन्द्रिय पुरुष की कामना करता है । मानो सोम कहता है कि यह जितेन्द्रिय ही मेरा रक्षण करेगा। रक्षित सोम तक्षा की तरह शरीररथ की टूट- फूट की मरम्मत करेगा। यह [ वैद्य] की तरह रोगों को दूर करेगा । तथा ब्रह्मा की तरह हमारे जीवनयज्ञ का सुन्दर सञ्चालन करेगा । यही बुद्धियों व व्रतों का रक्षण करेगा।

    भावार्थ - भावार्थ - लोगों के विविध ज्ञानों व कर्मों को सिद्ध करनेवाला यह सोम है। यह शरीररथ टूट-फूट की मरम्मत करता है, रोगों का इलाज करता है और जीवनयज्ञ को सुन्दरता से चलाता है ।

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