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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शिशुः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    जर॑तीभि॒रोष॑धीभिः प॒र्णेभि॑: शकु॒नाना॑म् । का॒र्मा॒रो अश्म॑भि॒र्द्युभि॒र्हिर॑ण्यवन्तमिच्छ॒तीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जर॑तीभिः । ओष॑धीभिः । प॒र्णेभिः॑ । श॒कु॒नाना॑म् । का॒र्मा॒रः । अश्म॑ऽभिः । द्युऽभिः॑ । हिर॑ण्यऽवन्तम् । इ॒च्छ॒ति॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जरतीभिरोषधीभिः पर्णेभि: शकुनानाम् । कार्मारो अश्मभिर्द्युभिर्हिरण्यवन्तमिच्छतीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जरतीभिः । ओषधीभिः । पर्णेभिः । शकुनानाम् । कार्मारः । अश्मऽभिः । द्युऽभिः । हिरण्यऽवन्तम् । इच्छति । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 112; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    के (जरतीभिः ओषधीभिः) = परिपक्व व रोगों को जीर्ण करनेवाली ओषधियों से, (शकुनानां पर्णेभिः) = पक्षियों के पंखों से तथा (द्युभिः अश्मभिः) = ज्योतिर्मय पाषाणों से [हीरों] (कार्मार:) = क्रियाकुशल व्यक्ति (हिरण्यवन्तम्) = धनवाले पुरुष को (इच्छति) = चाहता है, इनके विक्रय के द्वारा वह अपने को धनी बनाना चाहता है । हे (इन्दो) = शक्तिशाली सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष लिये (परिस्त्रव) = प्राप्त हो। जैसे वे हिरण्यवान् पुरुष को चाहते हैं, तू इस जितेन्द्रिय की कामना कर । शरीर में कभी रोग आदि आ जाते हैं और समान्यतः मनुष्य ओषधियों के प्रयोग से, पक्षियों के पंखों की भस्म बनाकर व मुक्ताभस्म आदि के द्वारा अपने को नीरोग बनाने की कामना करता है, इन से ही वह अपने को शक्तिशाली बनाना चाहता है । परन्तु सर्वोत्तम उपाय इस सोम का रक्षण ही है। इसके लिये हम जितेन्द्रिय बनें। यह जितेन्द्रियता सोमरक्षण द्वारा हमारे सब रोगों को विशेषरूप से कम्पित करके दूर करनेवाली होगी, यह तो है ही 'वीर्य' [वि + ईर] विशेष रूप से रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करनेवाला ।

    भावार्थ - भावार्थ–हम ओषधियों, पर्णभस्म व मुक्ताभस्मों के प्रयोग से रोगों को दूर करने की अपेक्षा शरीर में सोम [वीर्य] का धारण करें। इसे ही सर्वोत्तम औषध जानें।

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