ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सोमा॑ असृग्र॒मिन्द॑वः सु॒ता ऋ॒तस्य॒ साद॑ने । इन्द्रा॑य॒ मधु॑मत्तमाः ॥
स्वर सहित पद पाठसोमाः॑ । अ॒सृ॒ग्र॒म् । इन्द॑वः । सु॒ताः । ऋ॒तस्य॑ । सद॑ने । इन्द्रा॑य । मधु॑मत्ऽतमाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य सादने । इन्द्राय मधुमत्तमाः ॥
स्वर रहित पद पाठसोमाः । असृग्रम् । इन्दवः । सुताः । ऋतस्य । सदने । इन्द्राय । मधुमत्ऽतमाः ॥ ९.१२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
विषय - 'मधुमत्तम' सोम
पदार्थ -
[१] (सोमाः) = शरीर में ये वीर्यकण (इन्दवः) = अत्यन्त शक्ति को देनेवाले (असृग्रं) [सृज्यन्ते ] = पैदा किये जाते हैं । (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए ये सोमकण (ऋतस्य) = सादने ऋत के आधारभूत प्रभु की प्राप्ति के निमित्त बनते हैं। प्रभु 'ऋत के योनि' व 'ऋत के आधार' हैं । रक्षित हुआ हुआ सोम हमें दीप्त ज्ञानाग्निवाला बनाकर प्रभु-दर्शन के योग्य करता है । [२] ये सोमकण (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मधुमत्तमाः) = अतिशयेन माधुर्य को पैदा करनेवाले होते हैं । जितेन्द्रिय पुरुष ही इनका रक्षण कर पाता है । रक्षित हुए हुए ये उसके जीवन को 'शरीर, मन व बुद्धि' का स्वास्थ्य प्राप्त कराके मधुर बनाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सोम [क] शक्ति को देता है, [ख] 'ऋत के आधार' प्रभु को प्राप्त कराता [ग] जीवन को स्वास्थ्य के द्वारा मधुर बनाता है। ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा । देवता- पवमानः सोमः ॥ छन्दः - गायत्री ॥
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