ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रा॑य सोम पवसे दे॒वेभ्य॑: सध॒माद्य॑: । इन्दो॒ वाजं॑ सिषाससि ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । सो॒म॒ । प॒व॒से॒ । दे॒वेभ्यः॑ । स॒ध॒ऽमाद्यः॑ । इन्दो॒ इति॑ । वाज॑म् । सि॒सा॒स॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोम पवसे देवेभ्य: सधमाद्य: । इन्दो वाजं सिषाससि ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । सोम । पवसे । देवेभ्यः । सधऽमाद्यः । इन्दो इति । वाजम् । सिसाससि ॥ ९.२३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
विषय - पवित्रता प्रभु-सम्पर्क-शक्ति
पदार्थ -
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पवसे) = पवित्रता को करनेवाला होता है। इस पवित्रता के द्वारा (देवेभ्यः) = देव वृत्तिवाले पुरुषों के लिये तू (सधमाद्य:) = प्रभु के साथ आनन्द को अनुभव करानेवालों में उत्तम होता है । सोम के रक्षण से पवित्रता को प्राप्त होकर हम देव बनते हैं। देव बनकर उस प्रभु के साथ मेल के आनन्द को प्राप्त करते हैं । [२] हे (इन्दो) = सोम ! तू (वाजम्) = शक्ति को (सिषाससि) = हमें देने की कामना करता है। तेरे रक्षण से हम शक्ति-सम्पन्न बनते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - सोम [क] हमें पवित्र बनाता है, [ख] प्रभु- सम्पर्क के आनन्द को देता है, शक्ति प्राप्त कराता है।
इस भाष्य को एडिट करें