ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
ए॒ष वा॒जी हि॒तो नृभि॑र्विश्व॒विन्मन॑स॒स्पति॑: । अव्यो॒ वारं॒ वि धा॑वति ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । वा॒जी । हि॒तः । नृऽभिः॑ । वि॒श्व॒ऽवित् । मन॑सः । पतिः॑ । अव्यः॑ । वार॑म् । वि । धा॒व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष वाजी हितो नृभिर्विश्वविन्मनसस्पति: । अव्यो वारं वि धावति ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । वाजी । हितः । नृऽभिः । विश्वऽवित् । मनसः । पतिः । अव्यः । वारम् । वि । धावति ॥ ९.२८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - 'मनसस्पति' सोम
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह सोम (वाजी) = शक्ति को देनेवाला है। (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुषों से (हितः) = अपने अन्दर स्थापित किया जाता है। शरीर के अन्दर स्थापित हुआ हुआ यह सोम (विश्ववित्) = सब ज्ञानों को प्राप्त करानेवाला होता है तथा (मनसः पतिः) = मन का रक्षक होता है। सोम के सुरक्षित होने पर ज्ञानाग्नि तीव्र होती है तथा मन शुद्ध बनता है, मन में ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध नहीं उत्पन्न होते। [२] यह सोम (अव्यः) = रक्षण करनेवालों में उत्तम है और (वारम्) = सब वरणीय वस्तुओं को (विधावति) = विशेषरूप से प्राप्त कराता है। सोम के सुरक्षित होने पर सब धातुएँ ठीक बनी रहती हैं।
भावार्थ - भावार्थ - लक्ष्य को ऊँचा बनानेवाले व्यक्ति सोम का रक्षण कर पाते हैं। यह सोम शक्ति, ज्ञान व पवित्र भावनाओं को देनेवाला होता है।
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