ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ए॒ष शु॒ष्म्य॑सिष्यदद॒न्तरि॑क्षे॒ वृषा॒ हरि॑: । पु॒ना॒न इन्दु॒रिन्द्र॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । शु॒ष्मी । अ॒सि॒स्य॒द॒त् । अ॒न्तरि॑क्षे । वृषा॑ । हरिः॑ । पु॒ना॒नः । इन्दुः॑ । इन्द्र॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरि: । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । शुष्मी । असिस्यदत् । अन्तरिक्षे । वृषा । हरिः । पुनानः । इन्दुः । इन्द्रम् । आ ॥ ९.२७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
विषय - वृषा हरि
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह सोम (शुष्मी) = शत्रु-शोषक बलवाला है । (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में [अन्तराक्षि] मध्यमार्ग में यह (असिष्यदत्) = शरीर के अन्दर प्रवाहित होनेवाला होता है। अर्थात् जब हम अतिभोजन आदि से हटकर सदा नपी-तुली क्रियाओंवाले होते हैं तो यह हमारे अन्दर सुरक्षित रहता है । उस समय यह (वृषा) = हमें शक्तिशाली बनाता है और (हरि:) = हमारे सब रोगों का हरण करता है । [२] (पुनानः) = पवित्र करता हुआ यह (इन्दुः) = सोम [वीर्य] (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (आ) = समन्तात् प्राप्त होता है। जितेन्द्रिय पुरुष इसका अपने में रक्षण करता है। रक्षित हुआ हुआ यह उसके जीवन को आधि-व्याधियों से शून्य पवित्र बनाता है।
भावार्थ - भावार्थ- सोम हमारे शरीर के अन्दर के शत्रुओं को नष्ट करता है। इस सोम के रक्षण से बुद्धि भी तीव्र बनती है । सो सोम का रक्षक 'प्रियमेध' [प्रिया मेधा यस्मै ] होता है । सोम का वर्णन करता हुआ प्रियमेध कहता है-
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