ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
प्र सोमा॑सो विप॒श्चितो॒ऽपां न य॑न्त्यू॒र्मय॑: । वना॑नि महि॒षा इ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सोमा॑सः । वि॒पः॒ऽचितः॑ । अ॒पाम् । न । य॒न्ति॒ । ऊ॒र्मयः॑ । वना॑नि । म॒हि॒षाःऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोमासो विपश्चितोऽपां न यन्त्यूर्मय: । वनानि महिषा इव ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सोमासः । विपःऽचितः । अपाम् । न । यन्ति । ऊर्मयः । वनानि । महिषाःऽइव ॥ ९.३३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - विपश्चित सोम
पदार्थ -
[१] (विपश्चितः) = हमारे जीवनों में ज्ञानों का वर्धन करनेवाले (सोमासः) = सोमकण (प्रयन्ति) = हमें प्रकर्षेण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हमें प्राप्त होते हैं, (न) = जैसे कि (अपां ऊर्मयः) = प्रजाओं को 'भूख- प्यास, शोक-मोह व जरा-मत्यु' रूप छह ऊर्मियाँ प्राप्त होती हैं। सामान्य मनुष्य को भूख- व्यास अवश्य लगती ही है। इसी प्रकार हमें सोमकण अवश्य प्राप्त हों। [२] सोमकण हमें इस प्रकार प्राप्त हों (इव) = जैसे कि (महिषाः) = [मह पूजायाम्] पूजा की वृत्तिवाले लोग (वनानि) = वनों को, एकान्त देशों को प्राप्त होते हैं। उपासक एकान्त देश को प्राप्त करके प्रभु के उपासन में प्रवृत्त होता है। हमें भी सोम प्राप्त होकर इसी प्रकार उपासना की वृत्तिवाला बनायें ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमकणों को शरीर में सुरक्षित रखकर हम अपने ज्ञानों का वर्धन करनेवाले बनें ।
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