ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
ए॒ष प्र॒त्नेन॒ मन्म॑ना दे॒वो दे॒वेभ्य॒स्परि॑ । धार॑या पवते सु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । प्र॒त्नेन॑ । मन्म॑ना । दे॒वः । दे॒वेभ्यः॑ । परि॑ । धार॑या । प॒व॒ते॒ । सु॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्यस्परि । धारया पवते सुतः ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । प्रत्नेन । मन्मना । देवः । देवेभ्यः । परि । धारया । पवते । सुतः ॥ ९.४२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
विषय - दिव्यवृत्ति की प्राप्ति
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ सोम (देवः) = प्रकाशमय है, यह हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाता है। यह (प्रत्नेन मन्मना) = उस सनातन [अनादि सिद्ध] ज्ञान के साथ हमें प्राप्त होता है । सोमरक्षण से ही बुद्धि की दीप्तता को प्राप्त करके इस वेदज्ञान को प्राप्त करने का सम्भव होता है । [२] यह सोम (देवेभ्यः) = देववृत्तिवाले व्यक्तियों के लिये (धारया) = धारणशक्ति के साथ (परिपवते) = शरीर में चारों ओर गति करता है, वस्तुतः इसके शरीर में व्याप्त होने से ही हमारी वृत्ति दिव्य बनती है।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमें दिव्यवृत्तिवाला बनाता है ।
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