ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
पव॑स्व वृ॒ष्टिमा सु नो॒ऽपामू॒र्मिं दि॒वस्परि॑ । अ॒य॒क्ष्मा बृ॑ह॒तीरिष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । वृ॒ष्टिम् । आ । सु । नः॒ । अ॒पाम् । ऊ॒र्मिम् । दि॒वः । परि॑ । अ॒य॒क्ष्माः । बृ॒ह॒तीः । इषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व वृष्टिमा सु नोऽपामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा बृहतीरिष: ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । वृष्टिम् । आ । सु । नः । अपाम् । ऊर्मिम् । दिवः । परि । अयक्ष्माः । बृहतीः । इषः ॥ ९.४९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - अयक्ष्माः बृहतीः इषः
पदार्थ -
[१] हे सोम ! तू (नः) = हमारे लिये (वृष्टिम्) = सुखों के वर्षण को (आ सु पवस्व) = समन्तात् उत्तमता से प्राप्त करा सोमरक्षण के द्वारा हम सर्वथा सुखी हों । (दिवः परि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से (अपाम्) = कर्मों की (ऊर्मिम्) = तरंग को प्राप्त करा । अर्थात् सोमरक्षण के द्वारा हम सदा ज्ञानपूर्वक बड़े उल्लास के साथ कर्मों को करनेवाले हों। [२] हे सोम ! तू हमें उन (इषः) = प्रेरणाओं को प्राप्त करा जो कि (अयक्ष्माः) = सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, हमें सब रोगों से ऊपर उठानेवाली हैं तथा (बृहती:) = हमारी वृद्धि का कारण बनती है । अन्तः स्थित प्रभु से हमें प्रेरणा प्राप्त होती है। यह प्रेरणा हमारे उत्थान का कारण बनती है ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] हमें नीरोग बनाकर सुखी करता है, [ख] ज्ञानपूर्वक उत्साहमय कर्मों में लगाता है, [ग] प्रभु प्रेरणा को सुनने योग्य हमें बनाता है। यह प्रेरणा हमें नीरोग व उन्नत करती है ।
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