ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
परि॑ द्यु॒क्षः स॒नद्र॑यि॒र्भर॒द्वाजं॑ नो॒ अन्ध॑सा । सु॒वा॒नो अ॑र्ष प॒वित्र॒ आ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । द्यु॒क्षः । स॒नत्ऽर॑यिः । भर॑त् । वाज॑म् । नः॒ । अन्ध॑सा । सु॒वा॒नः । अ॒र्ष॒ । प॒वित्रे॑ । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि द्युक्षः सनद्रयिर्भरद्वाजं नो अन्धसा । सुवानो अर्ष पवित्र आ ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । द्युक्षः । सनत्ऽरयिः । भरत् । वाजम् । नः । अन्धसा । सुवानः । अर्ष । पवित्रे । आ ॥ ९.५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - शक्ति व ज्ञानदीप्ति
पदार्थ -
[१] (द्युक्ष:) = दीप्ति में निवास करनेवाला, ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला, यह सोम (सनद्रयिः) = ऐश्वर्यों का देनेवाला है। शरीर के सब कोशों को यह ऐश्वर्य से युक्त करता है। यह (नः) = हमारे लिये (अन्धसा) = अन्न के द्वारा (वाजम्) = शक्ति को भरत् भरता है । अन्न से रस- रुधिर आदि के क्रम से इसका उत्पादन होता है। उत्पन्न हुआ हुआ सोम हमें शक्ति-सम्पन्न करता है। मांस भक्षण से उत्पन्न हुआ हुआ सोम न तो शरीर में सुरक्षित रह पाता है और नां ही हमें शक्ति सम्पन्न करता है। [२] हे सोम ! (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ तू (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (आ अर्ष) = समन्तात् गतिवाला हो । हृदय की पवित्रता के होने पर यह सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है और उस समय यह हमें शक्ति व ज्ञान को प्राप्त कराता है।
भावार्थ - भावार्थ - अन्न के आहार से उत्पन्न सोम शरीर में सुरक्षित रहता है। यह सुरक्षित सोम हमारे में शक्ति व ज्ञान का सञ्चार करता है ।
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