ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
तव॑ प्र॒त्नेभि॒रध्व॑भि॒रव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यः । स॒हस्र॑धारो या॒त्तना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । प्र॒त्नेभिः॑ । अध्व॑ऽभिः । अव्यः॑ । वारे॑ । परि॑ । प्रि॒यः । स॒हस्र॑ऽधारः । या॒त् । तना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव प्रत्नेभिरध्वभिरव्यो वारे परि प्रियः । सहस्रधारो यात्तना ॥
स्वर रहित पद पाठतव । प्रत्नेभिः । अध्वऽभिः । अव्यः । वारे । परि । प्रियः । सहस्रऽधारः । यात् । तना ॥ ९.५२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - प्रत्नेभिः अध्वभिः
पदार्थ -
[१] (प्रत्नेभिः अध्वभिः) = प्राचीन, सदा से चले आये मार्गों के द्वारा तव (अव्यः) = हे सोम ! तेरा रक्षण करनेवाले के (वारे) = जिसमें से वासनाओं का निवारण किया गया है उस हृदय में (प्रियः) = प्रीति को प्राप्त करानेवाला (परियात्) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो । धर्म का मार्ग सदा से चला आ रहा है, अतएव वह सनातन है । जब कोई इस शाश्वत धर्म का लोप करके नये ही मार्ग पर चलने लगता है तभी वह विषयों का शिकार हो जाता है। शाश्वत धर्म के मार्गों पर चलता हुआ व्यक्ति सोम का रक्षण करनेवाला होता है, इस धर्म का लोप ही हमें विषय-प्रवण करके सोम- रक्षण के योग्य नहीं रहने देता । [२] सनातन धर्म मार्ग पर चलकर सोम का रक्षण करनेवाले के शरीर में यह सोम शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है [परियात्] । यह अंग-प्रत्यंग को सशक्त करके प्रीति को प्राप्त कराता है [प्रियः] । [२] यह सोम (तना) = शक्तियों के विस्तार के द्वारा (सहस्त्रधारः) = हजारों प्रकार से हमारा धारण करनेवाला होता है। हम सोम का धारण करते हैं। यह सोम हमारा धारण करता है ।
भावार्थ - भावार्थ - शाश्वत धर्म मार्ग पर चलते हुए हम सोम का धारण करते हैं, तो यह सोम हमारा धारण करता है।
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