ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
ए॒ष प्र कोशे॒ मधु॑माँ अचिक्रद॒दिन्द्र॑स्य॒ वज्रो॒ वपु॑षो॒ वपु॑ष्टरः । अ॒भीमृ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ घृत॒श्चुतो॑ वा॒श्रा अ॑र्षन्ति॒ पय॑सेव धे॒नव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । प्र । कोशे॑ । मधु॑ऽमान् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । इन्द्र॑स्य । वज्रः॑ । वपु॑षः । वपुः॑ऽतरः । अ॒भि । ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽदुघाः॑ । घृ॒त॒ऽश्चुतः॑ । वा॒श्राः । अ॒र्ष॒न्ति॒ । पय॑साऽइव । धे॒नवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष प्र कोशे मधुमाँ अचिक्रददिन्द्रस्य वज्रो वपुषो वपुष्टरः । अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनव: ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । प्र । कोशे । मधुऽमान् । अचिक्रदत् । इन्द्रस्य । वज्रः । वपुषः । वपुःऽतरः । अभि । ईम् । ऋतस्य । सुऽदुघाः । घृतऽश्चुतः । वाश्राः । अर्षन्ति । पयसाऽइव । धेनवः ॥ ९.७७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - वपुषो वपुष्टरः
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह सोम (प्र कोशे) = सर्वोत्कृष्ट आनन्दमय कोश में (मधुमान्) = अत्यन्त माधुर्यवाला होता हुआ (अचिक्रदत्) = प्रभु का आह्वान करता है । सोमरक्षण के होने पर माधुर्य व आनन्द की वृद्धि होती है तथा प्रभु-स्तवन की वृत्ति उत्पन्न होती है । यह सोम (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का (वज्रः) = शत्रु-संहारक अस्त्र बनता है । (वपुषः वपुष्टरः) = सर्वोत्तम वप्ता [बोनेवाला] है, यह सोम हमारे जीवन में सब सद्गुणों के बीजों को बोता है। [२] (ईम्) = निश्चय से सोमरक्षण के होने पर (ऋतस्य) = सत्य वेदज्ञान की (वाश्रा:) = वाणियाँ (अभि अर्षन्ति) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होती हैं । ये वाणियाँ (सुदुघाः) = उत्तम ज्ञान का हमारे अन्दर प्रपूरण करनेवाली हैं तथा (घृतश्चुत:) = ज्ञानदीप्ति को व नैर्मल्य को हमारे अन्दर प्रवाहित करनेवाली हैं। ये वाणियाँ हमें इस प्रकार प्राप्त होती हैं, (इव) = जैसे कि (धेनवः) = गौवें (पयसा) = दूध के देने के हेतु से हमें प्राप्त होती हैं। ये गौवें दूध देती हैं, वेदवाणी रूप गौवें ज्ञानदुग्ध को प्राप्त कराती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से [क] जीवन मधुर बनता है, [ख] वृत्ति प्रभु-प्रवण होती है, [ग] शत्रु संहारक शक्ति प्राप्त होती है, [घ] सगुणों के बीज बोये जाते हैं, [ङ] सत्य ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त होती हैं।
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