ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परि॒ ष्य सु॑वा॒नो अ॒व्ययं॒ रथे॒ न वर्मा॑व्यत । इन्दु॑र॒भि द्रुणा॑ हि॒तो हि॑या॒नो धारा॑भिरक्षाः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । स्यः । सु॒वा॒नः । अ॒व्यय॑म् । रथे॑ । न । वर्म॑ । अ॒व्य॒त॒ । इन्दुः॑ । अ॒भि । द्रूणा॑ । हि॒तः । हि॒या॒नः । धारा॑भिः । अ॒क्षा॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत । इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धाराभिरक्षाः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । स्यः । सुवानः । अव्ययम् । रथे । न । वर्म । अव्यत । इन्दुः । अभि । द्रूणा । हितः । हियानः । धाराभिः । अक्षारिति ॥ ९.९८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
विषय - 'कवच के समान' यह सोम
पदार्थ -
(स्यः) = वह (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ सोम (रथे) = इस शरीर रथ में (अव्ययम्) = न नष्ट होनेवाले (वर्म न) = कवच के समान (परि अव्यत) = आच्छादित किया जाता है। कवच के समान यह रक्षक होता है। कवच के धारण किये हुए योद्धा शत्रु शरों से शीर्ण शरीर नहीं किया जाता, इसी प्रकार सोमरूपी कवच को धारण करनेवाला रोग आदि से आक्रान्त नहीं होता। (इन्दुः) = यह सोम द्रुणा-'द्रुगतौ' क्रियाशीलता के द्वारा (अभिहितः) = शरीर में ही स्थापित हुआ हुआ (हियानः) = शरीर के अन्दर ही प्रेरित किया जाता हुआ (धाराभिः अक्षः) = अपनी धारण शक्तियों के साथ शरीर में संचरित होता है [क्षरति] क्रिया में लगे रहना ही वासनाओं से अनाक्रान्ति का साधन है, और इस प्रकार यह क्रियाशीलता सोमरक्षण का साधन हो जाती है ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरूपी कवच को धारण करनेवाले को शत्रुओं के बाण भेद सकते हैं ।
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