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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्व॑र्णरम् । येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रि॑ऽगुम् । वे॒पऽय॑न्तम् । स्वः॑ऽनरम् । येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम् । येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपऽयन्तम् । स्वःऽनरम् । येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (येन) जिस बल से (दशग्वं) दश इन्द्रियों के अनुसार चलनेवाले (अध्रिगुं) अनिवार्य गतिवाले (वेपयन्तं) चेष्टा करने में समर्थ (स्वर्णरम्) कार्य्य करने में स्वतन्त्र जीव की और (येन) जिस बल से (समुद्रं) अन्तरिक्षलोक की (आविथ) रक्षा करते हैं, (तम्, ईमहे) उस बल की हम याचना करते हैं ॥२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में यह कथन किया है कि यह भौतिक जड़ शरीर उसी परमात्मा की शक्ति से चेतनशक्ति को पाकर दश इन्द्रियों का अनुगामी बनकर विविध क्रिया करने में समर्थ होता है और “स्वर्णरम्” का अर्थ स्वतन्त्र है, जिससे यह सूचित किया है कि यह जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है, क्योंकि परमात्मा प्रत्येक जीव के लिये कर्तृत्व तथा इष्टानिष्ट कर्मों की रचना नहीं करता, किन्तु यह जीव का ही स्वभाव है कि जिससे वह स्वयं इष्टानिष्ट कर्मों में प्रवृत्त होता है ॥२॥

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