ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथाँ॑ इव प्रचो॒दय॑: । पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । सिन्धु॑म् । म॒हीः । अ॒पः । रथा॑न्ऽइव । प्र॒ऽचो॒दयः॑ । पन्था॑म् । ऋ॒तस्य॑ । यात॑वे । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन सिन्धुं महीरपो रथाँ इव प्रचोदय: । पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सिन्धुम् । महीः । अपः । रथान्ऽइव । प्रऽचोदयः । पन्थाम् । ऋतस्य । यातवे । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
विषय - अब परमात्मा से सत्यमार्ग प्राप्त करने के लिये याचना करना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(येन) जिस पराक्रम से (मही, अपः) महान् जलों को (रथान् इव) रथों के समान (सिन्धुम्) समुद्र के प्रति (प्रचोदयः) पहुँचाते हैं, (तम्) उस पराक्रम को (ऋतस्य, पन्थाम्) सत्य के मार्ग को (यातवे) प्राप्त करने के लिये (ईमहे) याचना करते हैं ॥३॥
भावार्थ - हे परमात्मन् ! आप अपने जिस पराक्रम से महान् जलों को शीघ्रगामी रथों के समान शीघ्रता से समुद्र को प्राप्त कराते हैं, वह पराक्रम, तेज और बल हमें भी दीजिये और हे परमपिता परमात्मन् ! आप हम लोगों को सत्य पर ले जाएँ, ताकि हम लोग मन, कर्म और वचन से सत्यव्यवहार में प्रवृत्त हों, हम कभी भी असत्य का आश्रय न लें, यह हम आपसे याचना करते हैं। हे प्रभो ! हमारा मनोरथ सफल करें ॥३॥
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