ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 33
वृषा॑ त्वा॒ वृष॑णं हुवे॒ वज्रि॑ञ्चि॒त्राभि॑रू॒तिभि॑: । वा॒वन्थ॒ हि प्रति॑ष्टुतिं॒ वृषा॒ हव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । त्वा॒ । वृष॑णम् । हुवे॑ । वज्रि॑न् । चि॒त्राभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । व॒वन्थ॑ । हि । प्रति॑ऽस्तुतिम् । वृषा॑ । हवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा त्वा वृषणं हुवे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभि: । वावन्थ हि प्रतिष्टुतिं वृषा हव: ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । त्वा । वृषणम् । हुवे । वज्रिन् । चित्राभिः । ऊतिऽभिः । ववन्थ । हि । प्रतिऽस्तुतिम् । वृषा । हवः ॥ ८.१३.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 33
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(वज्रिन्) हे वज्रशक्तिवाले ! (वृषा) कामवर्षुक होनेवाला मैं (चित्राभिः, ऊतिभिः) विविध स्तुतियों द्वारा (वृषणम्, त्वा) वृषा आपको (हुवे) आह्वान करता हूँ (हि) क्योंकि आप (प्रतिस्तुतिम्) प्रत्येक प्रार्थना को (ववन्थ) स्वीकृत करते हैं, अतः (वृषा, हवः) आपका आह्वान वृषा=कामनाप्रद है ॥३३॥
भावार्थ - हे कामनाप्रद परमेश्वर ! हम लोग कामनाओं की पूर्ति के लिये विविध स्तुतियों द्वारा आपके समीपवर्ती होते हैं। हे प्रभो ! आप हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार करनेवाले हैं, अतएव हमारी कामनाओं की पूर्तिरूप प्रार्थना को स्वीकार करें, ताकि हम उच्चभावोंवाले होकर पदार्थों के आविष्कार द्वारा ऐश्वर्य्यशाली हों और यज्ञादि कर्मों में हमारी सदा प्रवृत्ति रहें ॥३३॥ यह तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
इस भाष्य को एडिट करें