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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 33
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    वृषा॑ त्वा॒ वृष॑णं हुवे॒ वज्रि॑ञ्चि॒त्राभि॑रू॒तिभि॑: । वा॒वन्थ॒ हि प्रति॑ष्टुतिं॒ वृषा॒ हव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । त्वा॒ । वृष॑णम् । हुवे॑ । वज्रि॑न् । चि॒त्राभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । व॒वन्थ॑ । हि । प्रति॑ऽस्तुतिम् । वृषा॑ । हवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा त्वा वृषणं हुवे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभि: । वावन्थ हि प्रतिष्टुतिं वृषा हव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । त्वा । वृषणम् । हुवे । वज्रिन् । चित्राभिः । ऊतिऽभिः । ववन्थ । हि । प्रतिऽस्तुतिम् । वृषा । हवः ॥ ८.१३.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिमन् ! (वृषा) अहमपि वृषा बुभूषुः (चित्राभिः, ऊतिभिः) विविधस्तुतिभिः (वृषणम्, त्वा) वर्षितारं त्वाम् (हुवे) आह्वयामि (हि) यस्मात् (प्रतिस्तुतिम्) प्रत्येकस्तुतिम् (ववन्थ) भजसि त्वम् अतः (वृषा, हवः) तवाह्वानं वृषाऽस्ति ॥३३॥ इति त्रयोदशं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    विषयः

    इन्द्रस्य दानं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! तव कृपया अहमपि । वृषा=विज्ञानधनादीनां प्रजामध्ये वर्षिताऽस्मि । सोऽहम् । वृषणम् । त्वा=त्वाम् । हुवे=आह्वयामि । हे वज्रिन् महादण्डधर ! चित्राभिः=महाऽऽश्चर्यभूताभिः । ऊतिभिः=रक्षाभिः त्वं सर्वत्र विद्यमानोऽसि । हि=यतः । प्रतिष्टुतिम्=प्रतिस्तोत्रं स्तोत्रं स्तोत्रं प्रति । त्वम् । ववन्थ=संभजसि=प्राप्नोषि । अतस्तव हवोऽपि । वृषा ॥३३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिवाले ! (वृषा) कामवर्षुक होनेवाला मैं (चित्राभिः, ऊतिभिः) विविध स्तुतियों द्वारा (वृषणम्, त्वा) वृषा आपको (हुवे) आह्वान करता हूँ (हि) क्योंकि आप (प्रतिस्तुतिम्) प्रत्येक प्रार्थना को (ववन्थ) स्वीकृत करते हैं, अतः (वृषा, हवः) आपका आह्वान वृषा=कामनाप्रद है ॥३३॥

    भावार्थ

    हे कामनाप्रद परमेश्वर ! हम लोग कामनाओं की पूर्ति के लिये विविध स्तुतियों द्वारा आपके समीपवर्ती होते हैं। हे प्रभो ! आप हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार करनेवाले हैं, अतएव हमारी कामनाओं की पूर्तिरूप प्रार्थना को स्वीकार करें, ताकि हम उच्चभावोंवाले होकर पदार्थों के आविष्कार द्वारा ऐश्वर्य्यशाली हों और यज्ञादि कर्मों में हमारी सदा प्रवृत्ति रहें ॥३३॥ यह तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    इन्द्र का दान दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र आपकी कृपा से मैं भी (वृषा) विज्ञानादि धनों को प्रजाओं में देनेवाला हूँ । वह मैं (वृषणम्+त्वा) सर्व कामप्रद तुझको (हुवे) पूजता और आवाहन करता हूँ (वज्रिन्) हे महादण्डधर ! (चित्राभिः) विविध प्रकार की (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ सर्वत्र आप विद्यमान हैं (हि) जिसलिये (प्रतिष्टुतिम्) सर्व स्तोत्र के प्रति आप (ववन्थ) प्राप्त होते हैं, अतः (हवः+वृषा) आपका आवाहन भी सर्वकामप्रद है ॥३३ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! उस दयालु का दान अनन्त-अनन्त है, तुम भी अपनी शक्ति के अनुसार उसका अनुकरण करो ॥३३ ॥

    टिप्पणी

    यह अष्टम मण्डल का तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( वज्रिन ) बलशालिन् ( चित्राभिः ) आश्चर्यजनक नाना ( ऊतिभिः ) रक्षाकारिणी सेनाओं वा रक्षाओं से युक्त ( वृषणं ) बलवान् तुझ को ( वृषा ) मैं प्रजाजन ( हुवे ) स्वीकार करता हूं। तू ( वृषा ) सब सुखों का दाता, उत्तम प्रबन्धकर्त्ता और ( हवः ) शत्रुओं के साथ प्रतिस्पर्द्धाशील होकर ही ( प्रतिस्तुतिं वावन्थ हि ) सर्वत्र स्तुति को प्राप्त कर। (२) प्रभु नाना रक्षाओं से सुखप्रद है। वह संसार का प्रबन्धक, ( हव: ) स्तुत्य है, सबकी स्तुति प्राप्त करता है। इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृषा हवः

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! मैं (चित्राभिः ऊतिभिः) = अद्भुत रक्षणों के हेतु से (वृषणं त्वा) = शक्तिशाली व सुखवर्षक आप को वृषा शक्तिशाली बनता हुआ हुवे पुकारता हूँ। [२] आप (हि) = निश्चय से (प्रतिष्टुतिम्) = आपको लक्ष्य करके की गई स्तुति को (वावन्थ) = सेवन करते हैं। यह मेरे द्वारा की गई स्तुति मुझे आपका प्रिय बनाती है। (हवः वृषा) -=आपकी पुकार, आपकी आराधना, हमारे पर सुखों का वर्षण करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस सुखवर्षक प्रभु का आराधन करें। यही प्रभु के अद्भुत रक्षणों को प्राप्त करने का मार्ग है। हम प्रतिदिन प्रभु-स्तवन करते हुए प्रभु के प्रिय बनें। यह प्रभु का आराधन हमें सुखी करेगा। प्रभु की आराधना करता हुआ यह व्यक्ति गौओं व अश्वों को, ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को उत्तम बना पाता है। गौवों के विषय में उत्तम कथनवाला अश्वों को विषय में उत्तम कथनवाला यह 'गोषूक्ती व अश्वसूक्ती' बनता है। ये दोनों काण्वायन अत्यन्त मेधावी हैं । इन्द्र नाम से प्रभु- स्मरण करते हुए कहते हैं-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, I, your celebrant, am vibrant, exuberant and powerful too by your grace. Lord of thunder and clouds, I invoke you who command inexhaustible power and generosity along with your wonderful protections and modes of advancement. You listen and you love and bless the songs of adoration and prayer, and the invocation and prayers addressed to you are powerful and rewarding.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! त्या दयाळाचे दान अनंत अनंत आहे. तुम्हीही आपल्या शक्तीनुसार त्याचे अनुकरण करा. ॥३३॥

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