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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 26
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्र॒ त्वम॑वि॒तेद॑सी॒त्था स्तु॑व॒तो अ॑द्रिवः । ऋ॒तादि॑यर्मि ते॒ धियं॑ मनो॒युज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । त्वम् । अ॒वि॒ता । इत् । अ॒सि॒ । इ॒त्था । स्तु॒व॒तः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । ऋ॒तात् । इ॒य॒र्मि॒ । ते॒ । धिय॑म् । म॒नः॒ऽयुज॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र त्वमवितेदसीत्था स्तुवतो अद्रिवः । ऋतादियर्मि ते धियं मनोयुजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । त्वम् । अविता । इत् । असि । इत्था । स्तुवतः । अद्रिऽवः । ऋतात् । इयर्मि । ते । धियम् । मनःऽयुजम् ॥ ८.१३.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 26
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अद्रिवः, इन्द्र) हे शत्रुभयोत्पादक परमात्मन् ! (इत्था, स्तुवतः) इत्थं स्तुतिं कुर्वतः (त्वम्) त्वम् (अविता) रक्षकः (इत्, असि) एव भवसि वयम् (ऋतात्) सत्यमाश्रित्य “ल्यब्लोपे पञ्चमी” (मनोयुजम्, ते, धियम्) ज्ञानयुक्तम् ते कर्म (इयर्मि) प्राप्नोमि ॥२६॥

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    विषयः

    इन्द्रस्तुतिः क्रियते ।

    पदार्थः

    हे अद्रिवोऽद्रिमन्=दण्डधारिन् इन्द्र ! इत्था=इत्थमनेन प्रकारेण । स्तुवतः=स्तुतिं कुर्वतो जनस्य । त्वमविता इदसि=त्वं रक्षितैव भवसि । अतोऽहं हे इन्द्र । ऋतात्सत्याद्धेतोः । मनोयुजम्=मनश्चितं समाधौ युनक्ति या सा मनोयुक्ताम् । मनोयुजम्=समाधौ मनः स्थापनीयम् । धियम्=मेधाम् । ते=त्वाम् । इयर्मि=याचे । धातूनामनेकार्थत्वादियर्तिरिह याचनार्थः ॥२६ ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अद्रिवः, इन्द्र) हे शत्रुविदारक परमात्मन् ! (इत्था, स्तुवतः) इस प्रकार स्तुति करनेवाले के (त्वम्) आप (अविता, इत्, असि) रक्षक ही होते हैं, अनन्तर हम लोग (ऋतात्) सत्य का आश्रयण करके (मनोयुजम्, ते, धियम्) ज्ञानयुक्त आपके कर्मों को (इयर्मि) प्राप्त करते हैं ॥२६॥

    भावार्थ

    हे शत्रुविदारक परमात्मन् ! जो पुरुष आपकी उपासना में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं, निश्चय आप उनके रक्षक होते हैं और सत्य का आश्रयण करनेवाले ज्ञानयुक्त होकर वैदिक कर्मों द्वारा आपको प्राप्त करते हैं। हे प्रभो ! हमें आत्मिक बल दें कि हम सत्य का पालन करते हुए आपकी उपासना में सदा तत्पर रहें, जिससे हमें सुख देनेवाली अपूर्व ज्ञान की प्राप्ति हो ॥२६॥

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    विषय

    इससे इन्द्र की स्तुति करते हैं ।

    पदार्थ

    (अद्रिवः) हे दण्डधारी (इन्द्र) सर्वद्रष्टा परमदेव ! (इत्था) इस प्रकार (स्तुवतः) यशोगान करनेवाले के (त्वम्) आप (अविता+इत्+असि) रक्षक ही होते हैं । इस हेतु हे भगवन् ! (ऋतात्) सत्यता के कारण (मनोयुजम्) समाधि में मन को स्थापित करनेवाली (धियम्) बुद्धि को (ते) आपसे (इयर्मि) माँगता हूँ । जिस कारण आप सदा हम लोगों की रक्षा ही करते आए हैं, अतः मुझको सुबुद्धि दीजिये, जिससे मेरी पूरी रक्षा होवे ॥२६ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा उसका रक्षक होता है, जो शुभकर्म करता है और जो उस परमगुरु में मन लगाता है ॥२६ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! स्वामिन् ! हे ( अद्रिवः ) अविदीर्ण, अखण्ड शक्ति के मालिक ! तू ( इत्था स्तुवतः ) इस प्रकार स्तुति करने वाले का ( अविता इत् असि ) रक्षक ही है । ( ऋतात् ) सत्य ज्ञानमय वेद से मैं ( ते ) तेरे उपदिष्ट ( मनोयुजं ) मन के साथ योग करने वाले, वा ज्ञान की सहयोगिनी, (धियं) वाणी और कर्म को ( इयर्मि) प्राप्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, controller of clouds and mountains, wielder of the thunderbolt of justice and punishment, you are the saviour and protector of the celebrant who thus adores you. I concentrate and direct my thoughtful intelligence with controlled mind arisen from meditation on the laws of universal truth and divine law to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो शुभ कर्म करतो व त्या परमगुरुत मन रमवतो परमेश्वर त्याचाच रक्षक असतो. ॥२६॥

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