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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स्तु॒हि श्रु॒तं वि॑प॒श्चितं॒ हरी॒ यस्य॑ प्रस॒क्षिणा॑ । गन्ता॑रा दा॒शुषो॑ गृ॒हं न॑म॒स्विन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒हि । श्रु॒तम् । वि॒पः॒ऽचित॑म् । हरी॒ इति॑ । यस्य॑ । प्र॒ऽस॒क्षिणा॑ । गन्ता॑रा । दा॒शुषः॑ । गृ॒हम् । न॒म॒स्विनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुहि श्रुतं विपश्चितं हरी यस्य प्रसक्षिणा । गन्तारा दाशुषो गृहं नमस्विन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुहि । श्रुतम् । विपःऽचितम् । हरी इति । यस्य । प्रऽसक्षिणा । गन्तारा । दाशुषः । गृहम् । नमस्विनः ॥ ८.१३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    हे उपासक ! (श्रुतम्) प्रसिद्धम् (विपश्चितम्) विद्वांसम् (स्तुहि) स्तुत्या सेवस्व (यस्य) यस्य परमात्मनः (हरी) उत्पादनरक्षणशक्ती (प्रसक्षिणा) शत्रूणामभिभवित्यौ (नमस्विनः) नम्रस्य (दाशुषः) उपासकस्य (गृहे) अन्तःकरणे (गन्तारा) गमनशीले ॥१०॥

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    विषयः

    स एव स्तुत्योऽस्तीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! श्रुतम्=सर्वैर्विद्वद्भिश्च विश्रुतं सुप्रसिद्धम् । विपश्चितम्=विशेषेण द्रष्टारं चेतयितारञ्चेन्द्रम् । स्तुहि=प्रशंस । यस्येन्द्रस्य । प्रसक्षिणा=प्रसहनशीलौ । हरी=स्थावरजङ्गमात्मकौ हरणशीलौ पदार्थौ । नमस्विनः=पूजावतः । दाशुषः=दातुर्गृहम् । गन्तारा=गन्तारौ भवतः । तस्य भक्तस्य गृहं द्विविधया सम्पत्त्या पूर्णं भवतीत्यर्थः ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे उपासक ! (श्रुतम्) प्रसिद्ध (विपश्चितम्) उस विद्वान् परमात्मा की (स्तुहि) स्तुति करो (यस्य, हरी) जिसकी उत्पादन-रक्षणरूप शक्तियें (प्रसक्षिणा) शत्रु को नम्र करनेवाली और (नमस्विनः) नम्र (दाशुषः) उपासक के (गृहे) अन्तःकरणरूप गृह में (गन्तारा) जानेवाली हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    हे उपासक जनो ! तुम उस परमात्मा की उपासना में निरन्तर प्रवृत्त रहो, जिसकी उत्पादन तथा रक्षणरूप शक्तियें शत्रुओं को वशीभूत करनेवाली और उपासक के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर उसको बलवान् तथा पवित्र भावोंवाला बनानेवाली हैं ॥१०॥

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    विषय

    वही स्तुत्य है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप (श्रुतम्) सर्वश्रुत और (विपश्चितम्) सर्वद्रष्टा चेतयिता विज्ञानी परमात्मा की (स्तुहि) स्तुति कीजिये । (यस्य) जिसकी (प्रसक्षिणा) प्रसहनशील (हरी) स्थावर और जङ्गमात्मक सम्पत्तियाँ (नमस्विनः) पूजावान् और (दाशुषः) दरिद्रों को देनेहारे के (गृहम्) गृह में (गन्तारौ) जाते हैं अर्थात् उस भक्त के गृह में ईश्वरसम्बन्धी द्विविध स्थावर और जङ्गम सम्पत्तियाँ पूर्ण रहती हैं ॥१० ॥

    भावार्थ

    ईश्वरोपासकों को कदापि भी धन की क्षीणता नहीं होती, यह जानकर उसी की पूजा करो ॥१० ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य ! ( यस्य ) जिस परमेश्वर के ( हरी ) सेनापति के अति बलवान् दो अश्वोंवत् (हरी) मनोहर और संहारक दोनों रूप ( प्रसक्षिणा ) सज्जन और दुर्जन, दोनों को बलपूर्वक उत्तम रीति से विजय कर लेते हैं तू उसी ( श्रुतं ) वेदों, उपनिषदों द्वारा गुरुमुखों से से श्रवण किये, विख्यात, ( विपश्चितं ) विद्वानों से जानने योग्य और (विपः-चितम् ) वेद वाणी से चेतव्य, ज्ञातव्य प्रभु की ( स्तुहि ) नित्य स्तुति किया कर। और जिसे कान्त, भीम गुण राशियें ( नमस्विनः ) नमस्कार, विनयादि से पूर्ण ( दाशुषः ) आत्मसमर्पक, दानी पुरुष के ( गृहं गन्तारा ) गृह में प्राप्त होने वाले पुरुषों की (स्तुहि) स्तुति कर। इत्यष्टमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'श्रुत विपश्चित्' प्रभु का स्तवन

    पदार्थ

    [१] उस प्रभु का तू (स्तुहि) = स्तवन करे, जो (श्रुतम्) = सर्वत्र वेदवाणियों में सुने जाते हैं, तथा (विपश्चितम्) = ज्ञानी हैं, सम्पूर्ण ज्ञान के निधान हैं। [२] उस प्रभु का तू स्तवन कर (यस्य) = जिस (प्रसक्षिणा) = वासनारूप शत्रुओं का अभिभव करनेवाले (हरी) = इन्द्रियाश्व, ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व (नमस्विनः) = नमस्कार की भावनावाले (दाशुषः) = दाश्वान् यज्ञशील पुरुष के (गृहम्) = शरीरगृह को (गन्तारा) = प्राप्त होते हैं। अर्थात् प्रभु इस यज्ञशील आराधक को उन उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं, जो वासनारूप शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु के प्रति नमन की भावनावाले हों। दाश्वान् [यज्ञशील] बनें। प्रभु कृपा से हमें वासनाओं से अनाक्रान्त इन्द्रियाँ प्राप्त होंगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Praise the lord who is wise and all watching and whose glory resounds all over the universe, and whose overwhelming gifts of blessings flow and reach the house of the obedient and generous giver of charity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरोपासकांना कधी धनाची न्यूनता होत नाही हे जाणून त्याची पूजा करा. ॥१०॥

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