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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 18
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्रिक॑द्रुकेषु॒ चेत॑नं दे॒वासो॑ य॒ज्ञम॑त्नत । तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिर॑: स॒दावृ॑धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिऽक॑द्रुकेषु । चेत॑नम् । दे॒वासः॑ । य॒ज्ञम् । अ॒त्न॒त॒ । तम् । इत् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ । स॒दाऽवृ॑धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिकद्रुकेषु चेतनं देवासो यज्ञमत्नत । तमिद्वर्धन्तु नो गिर: सदावृधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽकद्रुकेषु । चेतनम् । देवासः । यज्ञम् । अत्नत । तम् । इत् । वर्धन्तु । नः । गिरः । सदाऽवृधम् ॥ ८.१३.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यज्ञम्) यष्टव्यम् (त्रिकद्रुकेषु) उत्पत्तिस्थितिप्रलयेषु (चेतनम्) जागरूकम् यम् (देवासः) सर्वे विद्वांसः (अत्नत) वर्धयन्ति (तम्, सदावृधम्, इत्) शश्वद्वृद्धिप्राप्तं तमेव (नः, गिरः) अस्माकं वाचः (वर्धन्तु) वर्धयन्तु ॥१८॥

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    विषयः

    महिमानं दर्शयति ।

    पदार्थः

    देवासः=विद्वांसो जनाः । त्रिकद्रुकेषु=त्रिषु लोकेषु । कुत्सितं रुवन्ति जीवा यत्र स कद्रुकः । त्रयः कद्रुका इति त्रिकद्रुकास्तेषु । चेतनम्=चेतयितारम् । यज्ञम्=यष्टव्यमीश्वरम् । अत्नत=अतन्वत यशोगानेन पूजया वा विस्तारयन्ति । तमित्तमेव । सदावृधम्=सर्वदा सुखस्य वर्धयितारम् । इन्द्रम् उद्दिश्य नोऽस्माकम् । गिरो वर्धन्तु=वर्धन्ताम् ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यज्ञम्) जिस पूजनीय (त्रिकद्रुकेषु, चेतनम्) उत्पत्ति-स्थिति-संहार तीनों अवस्थाओं में चेतन परमात्मा को (देवाः, अत्नत) सब विद्वान् बढ़ाते हैं (तम्, सदावृधम्, इत्) उसी सदा वृद्धिप्राप्त परमात्मा को (नः, गिरः) हमारी वाणियें बढ़ाएँ ॥१८॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा, जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करनेवाला है, उसकी महिमा को विद्वान् पुरुष सब अवस्थाओं में बढ़ाते हैं, अतएव हम सब प्रजाजनों को उचित है कि सदा वृद्धि को प्राप्त उस परमात्मा के महत्त्व को वाणियों द्वारा विस्तृत करें ॥१८॥

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    विषय

    इससे उसकी महिमा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (देवासः) दिव्यगुणयुक्त विद्वद्गण (त्रिकद्रुकेषु) तीनों लोकों में (चेतनम्) चेतन और सर्व में चेतनता देनेवाले और (यज्ञम्) पूजनीय उसी ईश्वर को (अत्नत) यशोगान से और पूजा से विस्तारित करते हैं अर्थात् अन्यान्य पूजा छुड़ाकर परमात्मा की ही पूजा का विस्तार करते हैं (तम्+इत्) उसी (सदावृधम्) सर्वदा जगत् में सुख बढ़ानेवाले इन्द्र के लिये ही (नः) हमारी (गिरः) वाणी (वर्धन्तु) बढ़ें । यद्वा उसी इन्द्र के परम यश को हमारी वाणी बढ़ावें ॥१८ ॥

    भावार्थ

    परम विद्वान्जन भी जिस को सर्वदा गाते स्तुति और प्रार्थना करते हैं, उसी को हम भी सर्वभाव से पूजें ॥१८ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    ( देवासः ) समस्त विद्वान् गण और सूर्य पृथिवी आदि लोक भी ( त्रि-कटुकेषु ) तीनों लोकों में ( तम् इत् चेतनं ) उस ही, चेतन, ज्ञानवान् ( यज्ञं ) सर्वोपास्य प्रभु को ( अन्नत ) फैला रहे हैं, उसी के महान् सामर्थ्य का विस्तार कर रहे हैं। उस (सदावृधं) सदा वृद्धिशील, महान् प्रभु को ( नः गिरः वर्धन्तु ) हमारी स्तुतियां भी बढ़ावें, उसी की जयकार करें, उसी को बड़ा मनावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    त्रिकद्रुकेषु चेतनम्

    पदार्थ

    [१] (त्रिकद्रुकेषु) = [कदि आह्वाने] प्रातः, मध्याह्न व सायं तीनों आह्वान कालों में (चेतनम्) = उपासकों की चेतना को बढ़ानेवाले (यज्ञम्) = उपास्य प्रभु को (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (अत्नत) = अपने अन्दर निरुद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। जितना जितना प्रभु का स्मरण करते हैं, उतना उतना ही अपनी चेतना को ये बढ़ानेवाले होते हैं। [२] (नः गिरः) = हमारी ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति-वाणियाँ (इत्) = निश्चय से (तम्) = उस (सदावृधम्) = सदा से बढ़े हुए प्रभु को ही (वर्धन्तु) = बढ़ायें। अर्थात् हम सदा प्रभु का स्मरण करनेवाले बनें। प्रभु-स्तवन ही हमारी वृद्धि का कारण बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जीवन के प्रातः, मध्याह्न व सायं में अर्थात् आजीवन प्रभु का स्मरण करनेवाले बनें। यह स्मरण ही हमारी चेतना को ठीक रखेगा। अन्यथा हम विस्मृति में डूबकर कुछ का कुछ करते रहेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brilliant people and divine forces of nature all enact and expand the cosmic yajna of the lord’s creation in all the three worlds of heaven, earth and the firmament. Let our voices too celebrate the same omniscient lord of the expansive universe and thereby rise in meaning and value.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अत्यंत विद्वानही ज्याचे गान गातात, स्तुती व प्रार्थना करतात. त्यालाच आम्ही सर्वभावे पूजावे. ॥१८॥

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