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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 31
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    वृषा॒यमि॑न्द्र ते॒ रथ॑ उ॒तो ते॒ वृष॑णा॒ हरी॑ । वृषा॒ त्वं श॑तक्रतो॒ वृषा॒ हव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । रथः॑ । उ॒तो इति॑ । ते॒ । वृष॑णा । हरी॒ इति॑ । वृषा॑ । त्वम् । श॒त॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । वृषा॑ । हवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषायमिन्द्र ते रथ उतो ते वृषणा हरी । वृषा त्वं शतक्रतो वृषा हव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । अयम् । इन्द्र । ते । रथः । उतो इति । ते । वृषणा । हरी इति । वृषा । त्वम् । शतऽक्रतो इति शतऽक्रतो । वृषा । हवः ॥ ८.१३.३१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 31
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कामनापूर्तये परमात्मा स्तूयते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (अयम्, ते, रथः) इदं ते रथरूपब्रह्माण्डम् (वृषा) कामानां वर्षिता (उतो) अथ (ते, हरी) तव उत्पत्तिस्थितिशक्ती (वृषणा) वर्षित्र्यौ (शतक्रतो) हे शतकर्मन् ! (त्वम्, वृषा) त्वमपि वर्षिता अतः (वृषा, हवः) तवाह्वानं वर्षिता ॥३१॥

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    विषयः

    ईश्वरस्तुतिं करोति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तव । अयमविभागेनावस्थितः संसाररूपो रथः । वृषा=कामानां वर्षिता । उतो=अपि च । ते=तव । हरी=स्थावरजङ्गमात्मकौ विभागेन स्थितौ द्विविधौ अश्वौ । वृषणा=वृषणौ=कामानां वर्षितारौ स्तः । हे शतक्रतो ! अनन्तकर्मन् परमात्मन् ! त्वं खलु । वृषा=सेवकानां प्राणिनां मनोरथपूरकः । हे इन्द्र ! तव हवः=आह्वानमपि । तव श्रवणमननावाहनाद्यपि । यदा वृषा=मनोरथानां वर्षितास्ति । तदा त्वं स्वयमेव वृषास्तीति किमु वक्तव्यम् ॥३१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कामनाओं की पूर्ति के लिये परमात्मा से प्रार्थना करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (अयम्, ते, रथः) यह आपका ब्राह्मण्डरूप रथ (वृषा) कामों की वर्षा करनेवाला है (उतो) और (ते, हरी) आपकी उत्पादन-पालनशक्तियें (वृषणा) कामनाप्रद हैं (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मवाले ! (त्वम्, वृषा) आप भी कामों की वर्षा करनेवाले हैं, इससे (वृषा, हवः) आपका आह्वान कामप्रद है ॥३१॥

    भावार्थ

    हे कामनाओं को पूर्ण करनेवाले परमेश्वर ! यह आपका रचनारूप ब्रह्माण्ड अनेक पदार्थों से परिपूर्ण होने के कारण मनुष्यों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है। हे परमात्मन् ! आप ही इस सम्पूर्ण सृष्टि का पालन-पोषण करनेवाले, आप ही कर्मों का विस्तार करनेवाले और आप ही कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। हे प्रभो ! हम प्रजाजन आपकी शरण को प्राप्त हुए प्रार्थना करते है कि हमारी कामनाओं को पूर्ण कर हमें सुखप्रद हों ॥३१॥

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    विषय

    इससे ईश्वर की स्तुति की जाती है । ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयम्+ते+रथः) अविभागरूप से अवस्थित जो यह सम्पूर्ण संसाररूप तेरा रथ है, वह (वृषा) निखिल कामों को देनेवाला है (उतो) और (ते) तेरे (हरी) विभाग से स्थित जो स्थावर और जङ्गमरूप द्विविध घोड़े हैं, (वृषणा) वे भी निखिल इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । (शतक्रतो) हे अनन्तकर्मन् परमात्मन् ! (त्वम्+वृषा) तू स्वयं कामवर्षिता है । परमात्मन् ! बहुत क्या कहें (हवः) तेरा आवाहन श्रवण, मनन आदिक भी (वृषा) समस्त अभीष्टप्रद है ॥३१ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा के सकल कर्म ही आनन्दप्रद हैं, अतः वही उपास्यदेव है ॥३१ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! ( अयम् ) यह ( ते ) तेरा ( रथः ) रथ रमणीय स्वरूप ( वृषा ) बलवान्, सुदृढ़ है। ( ते हरी ) तेरे दोनों अश्व भी ( वृषणा ) बलवान् हैं। हे ( शतक्रतो ) सैकड़ों, अनेक प्रज्ञा और कर्म वाले ! ( त्वं वृषा ) तू बलवान् है। तेरा ( हवः ) आह्वान, दान एवं नाम, स्मरणादि भी ( वृषा ) बलयुक्त, सुखों का देने वाला है । ( २ ) इसी प्रकार राजा का रथ राष्ट्र, उसके वासी स्त्री पुरुष, राजा स्वयं और उसका व्यवहार सब बलवान् हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, this cosmic chariot of yours moving on and on is exuberant and generous, the natural forces which carry it on are mighty, you, lord of infinite actions are generous and inexhaustible, and the homage and prayer offered to you is highly effective and infinitely rewarding.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची संपूर्ण कर्मेच आनंदप्रद असतात. तोच उपास्यदेव आहे. ॥३१॥

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