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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्र॑ शविष्ठ सत्पते र॒यिं गृ॒णत्सु॑ धारय । श्रव॑: सू॒रिभ्यो॑ अ॒मृतं॑ वसुत्व॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । र॒यिम् । गृ॒णत्ऽसु॑ । धा॒र॒य॒ । श्रवः॑ । सू॒रिऽभ्यः॑ । अ॒मृत॑म् । व॒सु॒ऽत्व॒नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र शविष्ठ सत्पते रयिं गृणत्सु धारय । श्रव: सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । शविष्ठ । सत्ऽपते । रयिम् । गृणत्ऽसु । धारय । श्रवः । सूरिऽभ्यः । अमृतम् । वसुऽत्वनम् ॥ ८.१३.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (शविष्ठ) हे अतिबल (सत्पते) सतां पालक (इन्द्र) परमात्मन् ! (गृणत्सु, रयिम्, धारय) स्तुवत्सु धनं धेहि (सूरिभ्यः) विद्वद्भ्यः (वसुत्वनम्) व्यापकम् (अमृतम्) अनश्वरम् (श्रवः) यशश्च ॥१२॥

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    विषयः

    ईश्वरप्रार्थनां करोति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे शविष्ठ=बलवत्तम ! हे सत्पते=सतां पालयितः ! गृणत्सु=स्तुतिं कुर्वत्सु साधुषु । रयिम्=विज्ञानात्मकं धनम् । धारय=स्थापय । तथा सूरिभ्यः=जनेभ्यः । श्रवः=यशो देहि । वसुत्वनम्=व्याप्तिमत् बहुकालस्थायि । अमृतम्=मुक्तिञ्च देहीति शेषः ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (शविष्ठ) हे अतिबली (सत्पते) सज्जनों के पालक (इन्द्र) परमात्मन् ! (गृणत्सु) स्तोताओं में (रयिम्) ऐश्वर्य्य को (धारय) धारण करें (सूरिभ्यः) और विद्वानों के लिये (वसुत्वनम्) व्यापक (अमृतम्) अनश्वर (श्रवः) यश को दीजिये ॥१२॥

    भावार्थ

    हे सत्पुरुषों के रक्षक=पालक परमात्मन् ! आप अपने उपासकों को ऐश्वर्य्यसम्पन्न करें, ताकि वह यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहें और विद्वानों को अनश्वर=नाश न होनेवाला यश दीजिये, जिससे वे आपकी महिमा का व्याख्यान करते हुए प्रजाजनों को आपकी उपासना तथा आज्ञापालन में प्रवृत्त करें ॥१२॥

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    विषय

    ईश्वर की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    (शविष्ठ) हे बलवत्तम ! (सत्पते) सत्यपालक (इन्द्र) सर्वद्रष्टा महेश ! (गृणत्सु) स्तुतिपाठक जनों में (रयिम्) ज्ञानविज्ञानात्मक धन को (धारय) स्थापित कीजिये । और (सूरिभ्यः) विद्वान् जनों को (श्रवः) यश दीजिये और (वसुत्वनम्) उनको बहुव्यापक बहुकालस्थायी (अमृतम्) मुक्ति दीजिये ॥१२ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर ही मुक्ति का दाता है, यह मानकर उसकी उपासना करें ॥१२ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! हे ( शविष्ठ ) बलशालिन् ! हे ( सत्-पते ) सत्पदार्थों, सत्य ज्ञान और सत्पुरुषों के पालक ! तू ( गृणत्सु ) विद्वान् उपदेशकों और स्तुतिकर्त्ता भक्त जनों में वा उनके निमित्त ( रयिंधारय ) ऐश्वर्य धारण कर वा उनको प्रदान कर । ( सूरिभ्यः ) विद्वान् पुरुषकों को ( श्रवः ) ज्ञान और ( अमृतं ) मोक्ष और ( वसुत्वनम् ) ऐश्वर्य ( धारय ) धारण करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रयि श्रवस्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (शविष्ठ) = निरतिशय शक्तिवाले सर्वशक्तिमन्! (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो! आप (गृणत्सु) = स्तुति वचनों का उच्चारण करनेवालों में (रयिं धारय) = ऐश्वर्य का धारण करिये। उस ऐश्वर्य का धारण करिये जो इन स्तोताओं को भी शक्तिशाली व सत्कर्मों का पालक बनाये। [२] हे प्रभो ! आप (सूरिभ्यः) = इन ज्ञानी पुरुषों के लिये (श्रवः) = उस ज्ञान को प्राप्त कराइये, जो अमृतम् अमृतत्व को, नीरोगता को देनेवाला हो, तथा वसुत्वनम् उत्तम निवास का कारण बने।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें उस ऐश्वर्य को प्राप्त करायें, जो बल व उत्तमता का जनक हो । प्रभु उस ज्ञान को दें, जो नीरोगता व उत्तम निवास का साधन बने।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, protector of truth and promoter of the truthful, vest the celebrants with wealth and wisdom and bring honour and fame and riches of immortal value for the wise, bold and brilliant intellectuals.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरच मुक्तीचा दाता आहे, हे मानून त्याची उपासना करावी. ॥१२॥

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