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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 41
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - विभिन्दोर्दानस्तुतिः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    शिक्षा॑ विभिन्दो अस्मै च॒त्वार्य॒युता॒ दद॑त् । अ॒ष्टा प॒रः स॒हस्रा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शिक्ष॑ । वि॒भि॒न्दो॒ इति॑ विऽभिन्दो । अ॒स्मै॒ । च॒त्वारि॑ । अ॒युता॑ । दद॑त् । अ॒ष्ट । प॒रः । स॒हस्रा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिक्षा विभिन्दो अस्मै चत्वार्ययुता ददत् । अष्टा परः सहस्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिक्ष । विभिन्दो इति विऽभिन्दो । अस्मै । चत्वारि । अयुता । ददत् । अष्ट । परः । सहस्रा ॥ ८.२.४१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 41
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (विभिन्दो) हे शत्रुकुल के भेदन करनेवाले (ददत्) दाता कर्मयोगिन् ! आप (अस्मै) मेरे लिये (अष्टा, सहस्रा, परः) आठ सहस्र अधिक (चत्वारि, अयुता) चार अयुत (शिक्षा) देते हैं ॥४१॥

    भावार्थ - सूक्त में क्षात्रधर्म का प्रकरण होने से इस मन्त्र में ४८००० अड़तालीस हज़ार योद्धाओं का वर्णन है अर्थात् कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासुजनों की यह प्रार्थना है कि आप शत्रुओं के दमनार्थ हमको उक्त योद्धा प्रदान करें, जिससे शान्तिमय जीवन व्यतीत हो ॥४१॥

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