ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
ऋषिः - मेधातिथिः
देवता - विभिन्दोर्दानस्तुतिः
छन्दः - निचृदार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त सु त्ये प॑यो॒वृधा॑ मा॒की रण॑स्य न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒त्व॒नाय॑ मामहे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । सु । त्ये इति॑ । प॒यः॒ऽवृधा॑ । मा॒की इति॑ । रण॑स्य । न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒ऽत्व॒नाय॑ । म॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत सु त्ये पयोवृधा माकी रणस्य नप्त्या । जनित्वनाय मामहे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । सु । त्ये इति । पयःऽवृधा । माकी इति । रणस्य । नप्त्या । जनिऽत्वनाय । ममहे ॥ ८.२.४२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 42
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
पदार्थ -
(उत) और (त्ये) वह आपकी दो शक्तियें जो (सु) सुन्दर (पयोवृधा) जल से बढ़ी हुई (माकी) मान करनेवाली (रणस्य, नप्त्या) जिनसे संग्राम नहीं रुकता (जनित्वनाय) उनकी उत्पत्ति के लिये (मामहे) प्रार्थना करता हूँ ॥४२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासु की प्रार्थना है कि आप कृपा करके हमको जल से बढ़ी हुई दो शक्ति प्रदान करें, जिनसे हम शत्रुओं का प्रहार कर सकें अर्थात् जल द्वारा उत्पन्न किया हुआ “वरुणास्त्र” जिसकी दो शक्ति विख्यात हैं, एक−शत्रुपक्ष के आक्रमण को रोकनेवाली “निरोधशक्ति” और दूसरी−आक्षेप करनेवाली “प्रहार शक्ति” ये दो शक्ति जिसके पास हों, वह शत्रु से कभी भयभीत नहीं होता और न शत्रु उसको वशीभूत कर सकता है, इसलिये यहाँ उक्त दो शक्तियों की प्रार्थना की गई है ॥४२॥ यह दूसरा सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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